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________________ पुण्य-पाप एकवहार ८१ शिखरिणी निषितु सर्वस्मिन् सुकृादुरिते कर्मणि किल प्रवृते नष्कम्यं न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वगं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥५॥ यहां कोई प्रश्न करता है कि जब शुभ क्रिया और अशुभ क्रिया सभो निषिदकारी हैं तो मुनीश्वर किसका अवलम्बन लेते हैं ? इसका इस प्रकार समाधान किया है-आमूल-चूल से अर्थात् जड़ मात्र से व्रत-संयम-तपरूप क्रिया अथवा शुभोपयोगरूप परिणाम या सक्लेश परिणाम-ऐसो जितनी भो क्रियाएं हैं वे कोई भी मोक्षमार्ग नहीं हैं। सूक्ष्म या स्थूल रूप जितने भी अंतजंल्प या बहिणल्प विकल्प है उनमे रहित निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य मात्र प्रकाशरूप वस्तु ही मोक्ष मार्ग है । एकरूप ऐसा हो है-जो निश्चय से ऐसा मान कर चलते हैं उन्हीं के मोक्षमार्ग है। जिन्होंने संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर यतिपना (मुनिपना) धारण किया है उनका मन, बिना आलम्बन के, शुन्य है-ऐसा तो नहीं है। तो कैसा है ? जब ऐसी प्रतीति होती है कि अशुक्रिया मोक्षमार्ग नहीं, और शभ क्रिया भी मोक्षमार्ग नहीं, तब निश्चय ही मुनीश्वर को शुद्ध स्वरूप का अनुभव ही आलम्बन होता है। जो ज्ञान बाहर परिणमन करता था वही अपने शुद्ध स्वरूप में परिणमन करता है। शुद्ध स्वरूप के अनुभव होने की यह विशेषता होतो है कि जो सम्यकदृष्टि मुनीश्वर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करते हैं, जो उसी में मग्न हैं, वे सर्वोत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख का आस्वादन भावार्थ-शुभ क्रियाओं में मग्न हुआ व्यक्ति विकल्पी होने से दुःखी है। क्रियाओं का संस्कार छूटने पर शुट स्वरूप का अनुभव हो तो जीव निर्विकल्प होता है । उसी से मुखी होता है ।।५।। सबंधा-शिष्य कहे स्वामी तुम करनी प्रशुभ शुभ, कोनी है निषेष मेरे संशं मन माहि है। मोन के संघया माता देश विरती मुनीश ! तिनको अवस्था तो निरालम्ब नाहीं है। कहे गुरु करम को नाश अनुमो अभ्यास, ऐसो प्रबलम्ब उनहीं को उन माहि है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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