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________________ करने व परीवह को सहने की पराकाष्ठा होने पर भी मोभमार्ग नहीं हुवा अतः मोक्षमागं कुछ और ही है' इस कथन पर इसने ध्यान ही नहीं दिया। शास्त्रों में देव गुरु शास्त्र की भक्ति व स्वाध्याय को शुभ राग व पुण्य वंध का और बंध की संसार का कारण बताया गया है और आत्मदर्शन को संवर निरा का व संवर निजंरा को मोक्ष का कारण बताया गया है पर अज्ञानी ने पूजन भक्ति व स्वाध्याय से ही मोक्ष मान लिया और इस रूप में बंध को ही संवर निजंरा मान कर तत्त्वों का सही श्रदान नहीं किया एवं शुभ राग में ही धर्म मान कर आचार्यों के अभिप्राय की ओर दृष्टिपात नहीं किया। आचार्यों ने देव गुरु शास्त्र के श्रदान को कहीं सम्यक्त्व कहा भी है तो वहां उस कथन को ठीक से समझ लेना चाहिए कि सम्यक्त्व तो निश्चय से मात्मदर्शन ही है पर देवगुरु शास्त्र क्योंकि उस आत्मदर्शन में निमित्त पड़ते हैं अतः उन्हें भी व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है और निमित्त भी वे हमारे लिए तो तब बनेंगे जब हम उन्हें निमित्त बनाएंगे। शास्त्रों में विवक्षा भंद से अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं अतः उन्हें ठीक प्रकार से समझ कर बुद्धि में अच्छी तरह बैठा लेना चाहिए कि कहाँ कोन सी विवक्षा से क्या कहा गया है। भगवान आचार्यों ने ग्रन्थों में वर्णन किया है कि शरीर व आत्मा अलग-अलग हैं पर हमें क्या दिखाई देता है। शास्त्रों में तो आचार्यों का अपने जीवन का अनुभव लिखा है और उनका अनुभव पढ़ना हमारे लिए इसी रूप में कार्यकारी है कि कह हमारा भी अनुभव बने। जब वह हमारे जीवन का अनुभव बनेगा तभी हमारी पर पदार्य की पकड़ छूटेगी। जीवन में परिवर्तन तो जो हमें दिखाई देता है उससे होगा न कि जो उनको दिखाई देता है उससे । जो उनको दिखाई देता है वह तो हमारे लिए गवाही बन सकती है। इस प्रकार इस अज्ञानी की अज्ञानता का विस्तार सब ओर फैला हुआ है और स्व को न पहचान कर शरीर व पर पदार्थों को ही ये अपने रूप देख जान रहा है। पांच लम्धि-अपने स्वरूप की जीव को खबर नहीं, सच्चे देव शास्त्र गुरु के स्वरूप को इसे पहचान नहीं, उनको पूजने के प्रयोजन का इसे विचार नहीं। सबसे पहले तो अपने प्रयोजन को ठीक करने पर दृष्टि होनी चाहिए। संसार से वैराग्य पैदा हो, उसमें आकुलता ही प्रतिभासित हो और मोक्ष सुख की चाह पंदा हो। मोक्ष सुख की इच्छा उत्पन्न होगी तो आत्म तत्त्व को जानने की बोर इसका पुरुषार्थ मुकेगा और तब सच्चे देव गुरु शास्त्र का
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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