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________________ ( ७ ) पता लगाएगा कि कहाँ से मुझे तत्व मिल सकता है और उनका निर्णय कर उन्हें भी आत्मा को जानने व पहचानने का ही माध्यम बनाएगा। सच्चे देव गुरु शास्त्र का निमित्त भी बड़े भाग्य से कभी कदाचित् किसी जीव को मिलता है और उसके मिलने के बाद भी आत्मदर्शन का पुरुषार्थ कर आत्म अनुभव कर लेना और भी साहस का काम है, तीव्र रुचि चाहिए उसके लिए । पर इतना क्षयोपशम है प्रत्येक सैनो पंचेन्द्रिय जीव के पास, ज्ञान शक्ति का उघाड़ है इतना कि वह स्वयं को देख जान सके। शक्ति का उघाड़ तो उतना ही है अब चाहे इसे भोगों में लगा दो चाहे स्वभाव में लगा दो, चुनाव करने में ये स्वतंत्र है, यदि इसने इस शक्ति का सदुपयोग न कर इसे भोगों में लगा दिया तो वह घटते घटते अक्षर के अनंतवें भाग रह जाएगी और ये अपने चिर परिचित स्थान निगोद में पहुँच जाएगा और इस शक्ति का सही उपयोग कर उसे यदि स्वभाव में लगा दिया तो वही शक्ति बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान तक पहुँच जाएगी। जैसे किसी के पास एक लाख रुपया है, अब वह उसे कहां लगाए यह उसकी स्वतंत्रता है, यदि उसने सही चुनाव कर उसे ठीक व्यापार में लगाया तो वह एक लाख से बढ़ता हुआ करोड़ों तक पहुँच जाता है अन्यथा एक लाख भी कम होते-होते नहीं के माफिक रह जाता है । अब जीव में शक्ति का सदुपयोग करने की सद्बुद्धि जाग्रत हो, कषायों की मंदता बने, परिणामों में विशुद्धिलब्धि की प्राप्ति हो एवं स्व की खोज की जिज्ञासा इसमें पैदा हो - कि अनादिकाल से इस शरीर को अपनाकर मैं संसार में दुःखों ही दुखों का पात्र बनता रहा हूँ। जन्म के समय मैं इसे अपने साथ लाया नहीं था और मरण के समय ये यहीं पड़ा रह जाएगा तो ऐसा लगता है कि मैं इस रूप नहीं । ये जड़ मुझसे कोई जुदा ही पदार्थ है और मैं चेतन जाति का हूँ। अहो ! मैंने बड़ी गल्ती की जो आज तक इसे अपना मानता रहा । इसको अपना कर मैंने क्या-क्या पाप नहीं किए, अभक्ष्य भक्षण किया, अन्याय रूप आचरण किया। अब मैं कैसे स्व तत्व को सम, कहाँ जाऊं ?' ऐसी पात्रता जब यह जीव पैदा करता है, ऐसी प्यास जब उत्पन्न होती है तो बरसात को आना ही पड़ेगा। कहते हैं जब राजस्थान में धरती बुरी तरह प्यासी हो जाती है तब फट जाती है, अर्थात् वह प्यास के मारे अपना मुंह खोल देती है उस समय वर्षा अवश्य होती ही है उसी प्रकार यहाँ भी ऐसा पात्र जब तैयार होता है तो कहीं विपुलाचल से मेघ गर्जना होनी ही पड़ती है। पात्र ही वर्षा को नहीं खोजता कभी वर्षा
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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