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________________ (८) भी पात्र की खोज लेती है। भगवान सर्वश कहते हैं-'तू अपने पात्र को सीधा नो कर, वां आएगी, जरूर आएगी। अगर पात्र ही उल्टा रखा हो तो बरसात भी क्या करेगी आकर, वह आई हुई भी नहीं बाने के माफिक है और यदि नेरा पात्र सोधा हो तो देशनालब्धि की प्राप्ति तुझे अवश्य होगी, अवश्य ही कहीं किसी कुन्दकुन्द की दया को बहना ही होगा कि यह मोका मत चूक जाना, यह चूक गया तो अनंत संसार में रुलना पहुंगा। अब तो स्वभाव को देख, ज्ञान के उस अखण्ड पिण्ड को देख जो वास्तव में तू है। वर्तमान में तुम में इतनी शक्ति है, गृहस्थी में रहते हुए भी तू स्वयं को उस भगवान आत्मा को आंम्न से नहीं, इन्द्रियों से नहीं, स्वयं से ही देख सकता है। अपने को अपने रूप देखना गृह त्याग की या किसी निन मुनसान वन को अपना नहीं रखता। अभी इसी समय, इसी परिस्थिति में, इसी क्षत्र में तू उस अप्रतिम आनन्द को प्राप्त हो सकता है उस चंतन्य का अनुभव कर सकता है और यही वास्तव में धर्म है। धर्म के साथ कोई ऐसी बात नहीं कि आज करो और फल चार दिन बाद मिलेगा। धर्म रूम तो तुम अभी हा जाओ और अभी शान्ति को प्राप्त कर लो। देख, कहीं एक समय भो, एकक्षग भी. व्ययं न चला जाए। वह कहीं बाहर नहीं, तू हो है इसलिए तू उन पा सकता है। वह इन चमं चक्षुओं से नहीं दोखगा, उस देखने के लिएता भातर को आंख तूने खोलनी ही होगी। भीतरी आंख खानने पर तुझ ज्ञान सा समुद्र स्वयं को आह्वान करता हुआ प्रतीत होगा कि आओ। मुझमें मग्न हा जाओ अनंत काल से भीषण गर्मों में संतप्त हुए तुम घून रह थे और मुझे तुमने पाया नहीं, अब तुमने बड़ यत्न से मुझे पाया, देखने क्या हा दूर से लगा लो डुबको डूब जाओ इस आनन्द के, ज्ञान के सागर मुम्नमें। जैसे काई स्वच्छ निर्मल जल से भरा हुआ तालाब हो और अत्यंत गर्मो में मुलमा हुआ कोई आदमी वहां आए और उसको शोतलता, स्वच्छता व निमलता को देखकर अनायास ही उसके मुंह से निकल पड़े-अरे ! ये तो मुम बला हो रहा है स्नान कर अपना ताप बुमाने के लिए।' इसी प्रकार आचाय कुरकुद कह रहे हैं कि इस अमूल्य अवसर को खो मत देना। कहीं पुण्य क फल में आसक्त मत हो जान. । यह सबसे बड़ा धोखा है जो व्यक्ति स्वयं को दे लिया करता है, इसे तूने अनंत बार भागा है, ज्ञानियों ने, चक्रातियों ने इसे पाप समझ कर छोड़ा है। यह मौका तेरे हाय आया है, 'कथमपि मत्वा' किसी प्रकार से मर कर भी
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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