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ही है। जैसी अहंबुद्धि शरीर में है वैसी तो चेतना में होनी चाहिए और जैसी परबुद्धि वस्त्रों में है वैसी इस शरार में होनी चाहिए। शरीर के स्तर पर तो इसे अनुभूति है, गरार में अपनी सत्ता की अनुभूति होती है कि मैं हूँ पर यही मैं पना चेतना में में उठना चाहिये क्योंकि ये वास्तव में चंतन्य ही तो है, तो जड़ है। शरीर के स्तर पर इसे भेदविज्ञान भी है, अपने घर, शरीर, धन, वैभव, स्त्री, पुत्र आदि को ही अपना मानता है । किमी दूसरे के की नहीं, पर यही भेदविज्ञान चेतना के स्तर पर होना चाहिए कि अनन्त गुण वाला ये चेतन पदार्थ तो मैं हूँ और ये शरीर एवं बाकी सारे पदार्थ पर है ।
(२) जीव को दूसरी अज्ञानता इस मिथ्या मान्यता से सम्बन्धित है कि सुख दुःख पर में से आना है और पर ही मुझे कपाय कराता है । वास्तविक स्थिति यह है कि पर पदार्थ कभी भी सुख-दुःख का कारण होता नहीं संयंत्र ही जीव के सुख-दुख का मूल कारण इच्छाओं - विकल्पों का अभाव वा सद्भाव ही है। अधिक इच्छाओं वाला प्राणी दुःखो और कम इच्छाओं वाला सुखी देखा जाता है। एक इच्छा की पूर्ति होने पर जो मुख का आभास सा होता है वह मुख वास्तव में उस पर पदार्थ में से नही आता जो इच्छा की पूर्ति होने पर मिला है वरन् तत्सम्बन्धी इच्छा का उस समय जो अभाव हुआ है उस अभाव से वह मुख आया है और अभी भी एक इच्छा का ही तो अभाव हुआ है, अन्य अनन्ता तो पंक्ति में खड़ी ही है अतः निरन्तर दुखी ही है। तथ्य तो यही है पर अज्ञानी उस सुख की इच्छा के अभावजनित नहीं मान कर ऐसो मान्यता करता है कि पर पदार्थ में से यह सुख आया और अपनी इस झूठी मान्यता के कारण वह इन पर पदार्थों को शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव, मकान, दुकान आदि को बढ़ाने की सतत धुन में लगा रहता है और इस प्रकार इच्छा करने का प्रयोजन इसके बना रहता है । मायाचारी आदि करके भी इच्छाओं की पूर्ति करने का लोभ इसे निरन्तर बना रहता है और पूर्ति न हो पाने पर क्रोध व पाय व पूर्ति हो जाने पर मान कपाय करता है और इस प्रकार कपाय करने का प्रयोजन भी अज्ञानी के बना रहता है। जीव स्वयं कषाय रूप परिणमन करता है और मानता ये है कि पर ने मुझे कषाय कराई। यह बात इसकी बुद्धि में बैठती नहीं कि जिम्मेवारी सारी मेरी ही है, पर तो मात्र निमित्त था और उसे निमित्त भी मैंने ही बनाया। पर का परिणमन पर के आधीन है, मेरा परिणमन मेरे आधीन है, जब पर को निमित्त बनाकर