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प्रस्तावना
'देखे को अनदेखा कर रे अनदेखे को देखा"
आज सर्वत्र पीड़ा है, अशान्ति है, हाहाकार है । प्रत्येक जीव मुख चाहता है और उसका हर एक प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिए ही है पर सिवाय दुख के हासिल उसे कुछ भी नहीं होता और जिसे ये मुख मानकर उसमें हा अटक जाता है वह वास्न सुख नही क्योकि जो सुख अपने साथ अपने पीछे-पीछे दुख को आए उसे सुख नहीं कहते । सच्चा सुख तो अपनी आत्मा को अपने रूप देखना, जानना और उस रूप रह जाना ही है पर ज्ञानस्वरूप उस आत्मा को न पहचानकर यह जीव अज्ञानो हुआ इस दुख सागर में परिभ्रमण कर रहा है। जोब की पीड़ा व दुख का मूल कारण इसकी अज्ञानता ही है और वह अज्ञानता इसके जीवन के प्रत्येक पहलू में विस्तृत है । अब उसी अज्ञानता के विविध आयामों का विवेचन करते हैं :
(१) अगल भूल यही है कि यह जीव अनन्त गुण वाला चैतन्य तत्त्व, ज्ञान शरीरी है पर मृतिक जड़ शरीर को, पुद्गल को इसने अपना होना मान लिया है । वह चैतन्य तत्व अमृनिक है अत इन जड़ आँखों से नहीं दिख सकता, वह मात्र स्वसंवेदनगम्य है, अपने अनुभव मे ही जाना जा सकता है। उसे तो अज्ञानी ने पहचाना नहीं और आंख के माध्यम से जब बाहर झांका तो उसे ये स्थूल शरीर दिखाई दिया और अपने आपको न पहचानने की भूल के कारण उसने इसको ही अपने रूप मान लिया और फिर संसार को वेल बढ़ती ही चली गई । आत्मा व शरीर में भेद तो स्वयं सिद्ध है, वह कुछ इसे करना नहीं, मात्र उसका ज्ञान करना है और वह भेदज्ञान कर उस एक अकेले चैतन्य में सर्वस्व स्थापित करना है। जिस रूप ये है नहीं जब उस रूप स्वयं को अनुभव कर सकता है तो उस रूप क्यों नहीं अनुभव कर सकता जिस रूप यह है, अनुभव करने वाला तो ये स्वयं