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________________ समयसार कलश टीका लेने मात्र से भी किसी चेतन जीव को न तो सुब होता है और न मान ही; इसलिए इनमें से किसी का भी उपादेय होना सिद्ध नहीं होता। शुरुजीय को मुबह और शान भी है अतः उसको जानने अनुभव करने वाले चेतन जीव को मुख है और मान भी है। इस प्रकार शुदजीव का ही उपादेय होना सिट होता है ॥१॥ संबंया-बो अपनी पति पाप विरामस, है परवान पदारय मानी। चेतन प्रक सा निकलंक, महासुन सागर को बिलरामो॥ भीष मनीष मिते जग में, तिनको गुन गायक मन्तरवामी। सो सिवरूप बसे सिवनायक, ताहि बिलोकिनमें सिवानी ॥१॥ __अनुष्टुप छन्द अनन्तधमंणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूत्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥२॥ अर्थ-भिन्न कहे जाने वाले द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से रहित जो अनन्तधर्मगुणयुक्त आत्मा या जीव द्रव्य है वही सर्वज्ञ वीतराग है। ऐसे सर्वज्ञ वीतराग की अनेकान्त अर्यात् स्याढादमयी, सदा त्रिकाल प्रकाश करने वाली, दिव्यध्वनि या वाणी को नमस्कार किया है। शंका-वाणी तो पुद्गल है-अचेतन है और अचेतन को नमस्कार निषिद्ध है। समाधान-यह शंका ठीक नहीं है। वाणी अचेतन होते हुए भी सर्वज्ञस्वरूप की अनुसारिणी है। उसको सुनकर ही जीवादि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है । अतः वह भी पूज्य है। कोई मिथ्यावादी यदि यह कहे कि परमात्मा तो निर्गुण है, गुणों का विनाश होने पर ही परमात्मपना होता है, तो ऐसा मानना मूठा है। गुणों के विनाश होने से तो द्रव्य का ही विनाश हो जाता है। संका-अनेकान्त तो संशय है और संशय मिथ्या है। समाधान-अनेकान्त संशय नहीं बल्कि उल्टे संशय को दूर करने वाता है और वस्तु स्वरूप को कहने के लिए साधन है। जो भी सत्ता-स्वरूप वस्तु है वह द्रव्य-गुणात्मक है। इसमें जो सत्ता बभेद-रूप से द्रव्य कही जाती है बही सत्ता भेद-रूप से गुणल्प कही जाती है। इसी का नाम अनेकान्त है। अनादि निधन वस्तु स्वरूप ऐसा ही है। किसी का चारा नहीं। इस प्रकार अनेकान्त प्रमाण है ॥२॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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