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समयसार कलश टीका होता है। गेमा होने पर जीव सम्यक्त्व गुणरूप परिणमन करता है-वह परिणमन गुदनारूप है। जब तक वह जीव क्षपकश्रेणी न चढ़े तब तक उमको चारित्र मोह कर्म का उदय है। ऐसे उदय में जीव फिर विषय-कषायरूप परिणमन करता है-वह परिणमन रागरूप है, अशुद्धरूप है । इस प्रकार किमी काल में किसी जीव के शपना और अशद्धपना दोनों एक ही समय में घटित होता है. इसमें कोई विरोध नहीं है । इसमें जो विशेष बात है कि यपि जीव को एक ही काल में शुद्धपना तथा अशुद्धपना दोनों होते हैं नथापि वे अपना-अपना कार्य करते है। सम्यकदृष्टि पुरुष समस्त द्रव्यकर्मरूप भावकमका अंतजंल्प, बहिल्परूप, सूक्ष्म-स्थलरूप क्रिया से विरक्त है परन्तु चारित्रमोह के उदय मे बलात् उसे क्रिया करनी पड़ती है। जितनी भी क्रिया है उतनी ही जानावरणादि कर्मबन्ध करती है, संवर-निर्जरा अंश मात्र भी नहीं करती है। पूर्वोक्त कथन के अनुसार एक जान ही अर्थात् एक गद्ध चतन्य प्रकाश ही ज्ञानावरणादि कर्म को क्षय करने का निमित्त है। भावार्थ----एक जीव में गद्धपना ओर अगदपना दोनों एक ही काल में होते हैं। परन्तु जितने अंश में गढपना है उतने अंग में कर्मों का क्षय है और जितने अंग में अशुद्धपना है उतनं अंग में कमंबंध होता है। एक ही समय में दोनों कार्य होते है। यह ऐसा ही है, इसमें मन्देह करना नहीं । शुद्ध ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है, पूज्य है और त्रिकाल में समस्त परद्रव्य से भिन्न है ।।१।। संबंया---जोलों प्रष्ट कर्म को विनाश नाहि सर्वथा,
तोलों अन्तरातमा में धारा दोई परनी। एक मानधारा एक शुभाशुभ कर्मधारा, दुहूं को प्रकृति न्यारी-न्यारी धरनो
इतनो विशेष करमपारा बधल्प, पराधीन सकति विविष बंध करनी। मानपारा मोलरूप मोल को करनहार, दोष को हरनहार भी समुद्र तरनी ॥११॥
शार्दूलविक्रीडित मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरामानं न जानन्ति ये मग्ना माननयंषिणोऽपि यतिस्वन्धनमन्दोचमः ।