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मोक्ष-अधिकार
१५६ है। सब काल में प्रत्यक्ष केवलज्ञान और केवलदर्शन का तेजपज है ॥२॥ सर्वया-काह एक जनी सावधान हं परम पंनी,
ऐखि इंनी घटमांहि डार होनी है।
पंठि नो-करम मेदि दरब-करम छेदि, स्वभाव विभावताको संषि सोधि लोनी है।
तहां मध्यपाती होय लखी तिन धारा बोय, एक मुषामई एक मुषारस भीनी है। मुधासों विरवि सुधासिधु में मगन होय,
एतो सब किया एक समय बोधि कोनी है। दोहा-से छनी लोहको, करं एकमों दोय । जड़ चेतन को भिन्नता, त्यों सुबुद्धिसों होय ॥२॥
श्लोक मित्या सर्वमपि स्वलक्षरणवलाद्मेत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्रातिनिविभागनहिमा शुद्धश्चिदेवात्म्यहम् । भियन्ते यदि कारकारिण यदि वा धर्मा गुरणा वा यदि मिन्तां न मिदाऽस्ति काचन विभौ मावे विशु चिति ॥३॥
भावार्थ-जिसको शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है उस जीव के परिणाम व संस्कार ऐसे होते हैं कि मैं तो चेतनागुण में चिह्नित तथा जिसकी महिमा भेद रहित है ऐमा शुद्ध चतन्य मात्र हूं। जितनी भी कर्मों के उदय की उपाधियां हैं जिनको यह जीव अनादिकाल में अपना जान कर अनुभव कर रहा था वह सब पर-द्रव्य जान कर उसका स्वामित्व छोड़ने पर शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है। कर्मरूप परद्रव्य को जीव से भिन्न करने के लिए 'जीव का लक्षण चैतन्य है कर्म का लक्षण अचेतन' ऐसा भेद सहायक है। जो यह भेद है कि आत्मा, आत्मा के लिए आत्मा से आत्मा को जानता है, अथवा आत्मा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप है, द्रव्य गुण-पर्याय रूप है, अथवा मानगुण, दर्शनगुण, सोज्यगुण इत्यादि रूप है ये सब भेद शब्दों में उपजाने से उपजते हैं परन्तु वचनमात्र में ही भेद हैं । चैतन्य सत्ता के विचार से तो कोई भेद नहीं है। निर्विकल्प मात्र चैतन्य वस्तु की सत्ता अपने स्वरूप में अपने बाप ही प्रवृत्त होने वाली एवं सब कर्मों की उपाधि से रहित है ॥३॥