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समयसार कलश टीका को अपना आप मान कर अनुभव करता है। ऐसा मिथ्यात्व भाव छूटने पर मानी भी सच्चा है और आचरण भी सच्चा है ॥१०॥ परिल्ल-सदा मोह सो भिन्न, सहजचेतन कयो।
मोह विकलता मानि, मिथ्यात्वीह रहो। करं विकल्प अनन्त, महंमति पारिक। सो मुनि जो पिर होड, ममत्व निवारिकं ॥१०॥
शार्दूलविक्रीडित सर्वसाध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यग्निश्रयमेकमेव तदमी निठकम्पमाकम्प कि शुवज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ॥११॥
सम्यग्दृष्टि जीव गशि अपने शुद्ध चिद्रूप म्वरूप में स्थिर होता हुआ क्यों न मुख को करे ? अपितु सर्वथा करना है। क्योंकि निज महिमा (रागादि में हित) चेतनागुण का ममूह है। निविकल्प वस्तु मात्र अनुभव गोचर है सभो उपाधियों में हित है। इसलिए मैं माझं, में जिलाऊं, मैं दुखी करूं, मैं मुखो करू, मैं मनुष्य हूँ इत्यादि जितने भी मिथ्यात्वरूप असंख्यात लोक मात्र परिणाम है वे सब हेय है और मिथ्यात्व भाव के होने से हुए है, ऐसा माक्षात विराजमान केवलज्ञानो परमात्मा ने कहा है। जितने भी सत्यरूप अथवा असत्यरूप, शुद्ध स्वरूप मात्र मे विपरीत, मन-वचन-काय के विकल्प हैं उनको सब प्रकार में छोड़ो।
भावार्थ-जिसके पीछ कहे गये मिथ्याभाव छूटे उसका समस्त व्यवहार छूटना है । इस प्रकार मिध्यान्व के भाव तथा व्यवहार के भाव एक ही वस्तु है । व्यवहार वही है जिसका विपरीतपना ही अलम्बन है ॥११॥ संबंया-प्रसंख्यात लोक परमान जे मिथ्यात्व भाव,
तेई व्यवहार भाव केवली उकत है। बिहके मिथ्यात्व गयो सम्यकदरस भयो, ते नियत लोन पवहारसों मुक्त हैं।
निरविकल निरुपाधि प्रातम समाधि, साधिजे सुगुरण मोम पंथकों दुकत है।