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जीव-अधिकार
२७ प्रार्या नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यं ।
प्रक्षोममिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं पर जयति ॥२६॥
नीर्थकर के आयुपर्यन एक प. बालकपन ---तरुणापन-बढ़ापे के विकार मे हित, मर्वाग में मुस्थित, बिना यत्न के आश्चर्यकारी लावण्य से पूर्ण ममुद्र की नग्ह निःचल शरीर को शाभा जयवत हो।
भावार्थ-जम वायु ने गहन समुद्र निश्चल है वम ही तीर्थकर का शरीर निश्चल है। इस प्रकार अर्गर को स्नान करने में आत्मा की स्तुति नहीं होती है । क्याकि शरीर का गृण आत्मा में नहीं है । आत्मा का ज्ञानगुण है । ज्ञानगुण की स्तुति करने में आत्मा को स्तुति होती है ॥२६॥ सबंया ---- जामें बालपनो तरुनापो वृद्धपनो नाहि,
प्रायुपर्यन्न महारूप महाबल है। बिना ही जतन जाके तन में अनेक गुन,
प्रतिमय विराजमान काया निमल है। जमे बिन पवन समुद्र प्रविचन रूप,
तसे जाको मन अरु प्रासन अचल है। ऐमो जिनगज जयवन्त होउ जगत में,
जाको शुभगति महामुकृति को फल है ॥२६॥
शार्दूलविक्रीडित छन्द एकत्त्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयाव: स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्वतः स्तोत्रं निश्चयतश्चितो मति चित्स्तुत्यंवसंबंभवेनातस्तीर्थकरस्तवोनरबलादकत्वमात्मानयोः ॥२७॥
इम प्रकार, नीर्थकर अथवा परमेश्वर के गरीर की स्तुति करने में आत्मा का म्नति होती है--सा जा मिथ्याति जीव कहते हैं, उनको उत्तर दिया है कि शरीर की प्रति कग्न म आत्मा की स्तुति नहीं। आत्मा के ज्ञान गुण की स्तुति करने में आत्मा की स्तुति है । इम उनर में जिस आत्मा का मंदेह दूर हो गया उसका ममम्न कम की उपाधि के साथ एक द्रव्यपना नहीं होता है। जैसे मिथ्यादृष्टि कहता था जीव की स्तुति में नहीं होती है कमे होती है यह आगे बताते हैं।