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समयसार कलश टीका
ही उसके भोक्ता होते। सो दोनों तो भोगने नहीं हैं। यह तो घटित होता है कि जीव द्रश्य सुख-दुख को भोक्ता है क्योंकि वह चेतन है पर पुद्गल द्रव्य अचेतन है इसलिए उस पर सुख-दुख का भोक्तापना नहीं घटना । इसलिए रागादि अशुद्ध चेतन परिणामों का अकेला मंमारी जीव ही कर्ता है और भावना है। इसी अर्थ को और स्पष्ट करते हैं - यह अकेले पुद्गल कर्म की करतूत नहीं है । भावार्थ कोई यह माने कि रागादि अशुद्ध चेतन परिनाम अकेले पुद्गल कर्म के किए हैं तो उसका उत्तर है कि ऐसा भी नहीं है क्योंकि अनुभव में ऐसा आता है कि पुद्गल कर्म अचेनन द्रव्य है और रागादि परिणाम अशुद्ध चेतना हैं । अचेतन द्रव्य के परिणाम तो janak ही होंगे इसलिए गगादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता संसारी जीव है और भोक्ता भी वही है ॥। ११॥
दोहा - शिष्य पूछे प्रभु तुम कह्यो, दुविध कर्म का रूप । द्रव्यकर्म पुद्गलमई, भावकर्म विद्रूप ॥
कर्ता द्रव्यजु कर्मको, जीव न होइ त्रिकाल । ar यह भावित कर्म तुम कहो कौन की चाल ।। कर्ता याको कौन है, कौन करे फल भोग ।
कं
पुद्गल कं प्रात्मा, क दुह को संयोग ॥ क्रिया एक कर्त्ता जुगल, यों न जिनागम मांहि । थवा करणो प्रोरकी, धौर करे यों नाहि ॥ करे और फल भोगवे, श्रौर बने नहि एम । जो करता सो भोगता यहै यथावत जेम ॥
भावकर्म कर्त्तव्यता, स्वयं मिद्ध नहि होय । जो जगको कररगो करे, जगवासी जिय सोय ॥ जिय कर्ता जिय भोगता, भावकर्म जियचाल । पुद्गल करे न भोगवं, दुविधा मिष्याजान ॥
ताते भावित कर्मको, करे मिध्याती जीव । सुख दुख प्रापद संपदा, भुंजे सहज सबोब ॥११॥
शार्दूलविक्रीडित
कर्मेव प्रतिक्यंकर्तृ हतर्कः क्षिप्तत्वात्मनः कर्तुं तां कर्तात्मंच कथंचिदित्यचलिता कंश्चिच्छतिः कोपिता ।