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या अशुभ क्रिया, परिणामों की शुभ या अशुभ त्रिया और एक ज्ञान की, जानने की क्रिया । क्योंकि जानने की क्रिया इसके पकड़ में नहीं आ रही है और शरीर व परिणामों की पकड़ में आ रही है इसीलिए ये स्वयं को शरीर या परिणाम रूप ही समझ लेता है पर जानने की क्रिया हो रही है प्रति समय । शरीर की कंसी भी स्थिति हो उसका जाननपना हो रहा है ! तभी तो ये वह सकता है कि कुछ देर पहले मैं ऐसे बैठा था। जिस समय उस रूप में शरीर को बैठने की त्रिया हो रही थी उसी समय वो जानने वाला उसे जानता जा रहा था, शरीर की श्रिया व जानने की श्रिया में समय भेद नही । इसी प्रकार परिणामों की भी चाहे कोई अवस्था हो उसका जाननपना भी उसी समय साथ-साथ होता जा रहा है। कोई है वहाँ पर जो सतत जानता जा रहा है कि अभी क्रोध रूप परिणाम थे और अब त्रोध रूप परिणाम नहीं हैं। पूछने पर ये बताना भी है, इसका अर्थ है कि उन सबको जानने वाला कोई वहाँ जरूर होना चाहिए। शोध के सद्भाव में उस जानने वाले ने क्रोध को जाना और उसके चले जाने पर वो अय क्रोध के अभाव को जान रहा है । वह जानने वाला सतत एक रूप से जो कुछ भी परिणमन हो रहा है उसको जान रहा है, जानता जा रहा है। उसका काम मात्र जानने का है । कर्म का फल बदल रहा है पर वह जान रहा है, जानने वाला नहीं बदल रहा है पर वह जन्म को भी जान रहा है और मृत्यु को भी जान रहा है और स्वयं न मरता न जीता है । यह अवस्था, यह जानपना सभी में है पर जानने वाला स्वयं को नहीं देख रहा है । अन्य जो ज्ञेय पदार्थ, अपना विकारी परिणमन, शरीर की क्रिया और शरीर के साथ संयोग- ये सब ज्ञेय हैं ओर वह ज्ञाता है । ज्ञाता का कार्य हो रहा है, नहीं तो इन सबको कौन जान सकता था ? दी है वहाँ पर ज्ञान व कर्म साथ-साथ चल रहे हैं। हर समय सोते-जागते - एक वह है जो सो रहा है एक उसका जानने वाला है, एक वह है जो खा रहा है, चल रहा है, देख रहा है, रो रहा है, देख रहा है और एक वह है जो खाते हुए भी खाता नहीं चलने हुए भी चलता नहीं रोते हुए भी रोता नहीं, कोधादि होते हुए भी क्रोधी नहीं होता, दुःख होते हुए दुखी नहीं होता, सुख होते हुए सुखी नहीं होता, परन्तु सबको मात्र जान रहा है । अब इन दोनों में से जीव को यह निर्णय करना है कि मैं कौन ? क्योंकि आत्म नित्य है अतः मैं जानने वाला ही हो सकता हूँ और ये सारे परिणमन अनित्य हैं निरन्तर बदलते जा रहे हैं अतः में वे नहीं हूँ । यदि मैं इन रूप होता तो