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________________ कर्ता-कर्म-अधिकार करम को करतार मान्यो पुद्गल पिंड, माप करतार भयो प्रातम धरम को॥१॥ __ मालिनी परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भववादा निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुचण्डमुच्चः । ननु कथमवकासः कर्तृकर्मप्रवृत्ते रिहमवति कर्ष वा पौद्गलः कर्मबन्धः ॥२॥ जीव और कम में जो एकन्व बुद्धि थी उसको छोड़कर चिद्रप शक्ति जो म्वयं में पूर्ण है प्रगट हुई । ऐमा अतिशयरूप जीव अपने ज्ञानगुण का ही अनुभव करता है तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अथवा द्रव्य-गण पर्याय आदि अनेक विकल्पों को जड़ से उखाड़ फेकना है। हे शिष्य ! शुद्ध ज्ञान प्रगट होने पर. जीव कनां है और जानावरणादि पुद्गापड उसके कर्म हैं, ऐसा जो व्यवहार बुद्धि का विपरीतपना है. उमका क्या अवमर है ?-कोई नहीं । भावार्थ- जमे, मूर्य का प्रकाश होने पर अंधकार को अवसर नहीं, वैसे ही स्वरूप का अनुभव होने पर विपरीत रुप मिथ्यात बुद्धि का प्रवेश नहीं है। प्रश्न-गुद ज्ञान का अनुभव होने पर विपरीन बुद्धि मात्र मिटती है या कम बन्ध मिटता है? उतर-विपरीत बुद्धि मिटनी है। कर्म बन्ध भी मिटना है। विपरीत बर्बाद के मिटने पर, जो पदल सम्बन्धी द्रपिडकप कमंबंध हैं, मानावग्णादि कर्मों का आगमन है, वह फिर क्यों होगा?-नहीं होगा ॥२॥ संबंया-जाही सम जीव देह बुद्धि को विकार तजे, बेदत स्वरूप नित भेदत भरम को। महा परवड मतिमान प्रक्षण रस, मनभी प्रन्यास परकासत परम को। ताही समं घट में न रहे विपरीत भाव, जैसे तम नासे भानु प्रगटि धरम को। ऐसी दशा मावे जब माधक कहावे तब, करता हूं कैसे करें पुदगल करम को ॥२॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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