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( ८) में बैठने वालों को रही, भाई कपूरचंद जी की खास प्रेरणा रही, उन्होंने इस पंथ की छपाई में अपने पास मे चार हजार रु. दिए और बाकी और भी अन्य भाइयों को प्रेरणा कर इकट्ठं कर दिए जिसके लिए मैं उन्हें बहुतबहुत धन्यवाद देता है। वीर मेवा मन्दिर से यह प्रकाशित किया जा रहा है।
यह पंथ सो आत्म रस में भरा हुआ रस का कप है। ऐसा लगता है मानो यह अपने स्वरूप में रमण करने का निमंत्रण ही दे रहा हो। स्वानुभव की जैसी प्रेरणा इममें की गई है सी कम ग्रंथों में मिलतो है। ऐसे शास्त्र का बार-बार स्वाध्याय, मनन व चिन्तन करना आवश्यक है, इसी मभिप्राय से इसको छपाया गया है। स्वाध्याय प्रेमियों से अनुरोध है कि इसकी मात्र एक बार नहीं वरन् दस-बीस बार स्वाध्याय कर, तत्व को समझ कर अपने भापको चैतन्य रूप अनुभव करने का पुरुषार्थ करें जिससे स्वानुभूति उदय को प्राप्त हो।
काललब्धि बाने पर अर्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर जीव को सम्यग्दर्शन होता है, ऐसा कवि राजमल जी ने बार-बार लिखा है परन्तु मेरी समझ में और श्री महेन्द्रसेन जी के भो अनुसार जब जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पुरुषार्थ कर सम्यक्त्व प्राप्त करता है तब उसका अनंत संसार समाप्त होकर अधिक से अधिक अई पुद्गल परावर्तन शेष रह जाता है। जोर सदेव पुरुषार्ष पर ही आना चाहिए। यदि काललब्धि पर जोर देंगे तो जीव का पुरुषार्ष कुण्ठित हो जाएगा और वह यही समझ कर बैठ जाए कि अभी मेरी कामलग्धि नहीं आई है, उसके आने पर स्वयमेव सम्यग्दर्शन हो जाएगा। पं० टोररमल जी ने भी 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में इस विषय का अच्छा बुलासा करते हुए यही लिखा है कि किसी भी कार्य की पूर्ति में स्वभाव, निमित्त, पुरुषार्थ, कामलन्धि व होनहार ये पांच समवाय चाहिए पर इस सन्दर्भ में पुरुषार्थ ही मुख्य है। जीव पर सम्यग्दर्शन प्राप्ति का पुरुषार्थ कर रहा है तो उसकी कालसन्धि आ गई और होनहार भी उसी प्रकार की है तभी तो उससे बह पुरुषार्थ बन पा रहा है, काललन्धि व होनहार स्वयं में तो कोई वस्तु है नहीं। इसके बारे में पाठकों को विचार करना चाहिए। सन्मति-विहार नई दिल्ली-२