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ममयमार कला टाका
यस्मान मात्वा व्यतिकमिदं तत्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥४॥
जिम मम्यन्दष्टि जीव के. मियान्व कम का उपशम हुआ है, उसका गद्ध मम्यक्त भावरूप परिणाम है, उसके गद्ध स्वरूप का अनुभवरूप म जानपना होता है तथा द्रव्यकम भावव मं, नाकम तथा ज्ञेयरूप जितने भी पग्द्रव्य है उन मबका मब प्रकार मयाग होता है-मी दोनों शक्तियाँ उसमें अवश्य ही मबंथा होती है, क्याकि सम्यन्दष्टि जीव जहाँ सहज ही शुद्ध म्वम्प के अनुभवम्प होता है वहां पदगल द्रव्य की उपाधि से उपजी जितनी भी गगादि अशुद्ध परिणति है, उन मबम मब प्रकार हित भी होता है ।
भावार्थ-गलक्षण सम्यग्दष्टि जीव के अवश्य होते है और ऐसे लक्षण होने में वैराग्यगृण भी अवश्य होता है। मम्यग्दृष्टि जीव कहने के लिए नहीं बल्कि यह अनुभवरूप में जानना है कि शुद्ध चतन्यमात्र ही मेरा म्वरूप है और द्रव्यकर्म, भावकम, नोकमं का विस्तार तो पराए पुद्गल द्रव्य का है। यही उमकी ज्ञानमक्ति है। इस प्रकार वह अपन गद्ध स्वरूप का निरन्तर अभ्याम करता है और निजम्बाप की प्राप्ति के निमिन अपने शुद्ध म्बाप का ग्रहण करता है तथा परद्रव्य का मर्वथा त्याग करता है ॥४॥ सया--सम्यकवना महा उर प्रता, ज्ञान विराग उभं गुण धारे।
जानु प्रभाव लते निज लक्षण, जीव प्रजोव दशा निरवारे। प्रातमको अनुभौ करि स्थिर, प्राप तरे प्रोरनि तारे। साधि स्वाम्य लहे शिव समं मो, कर्म उपाधि व्यथा वमिसरे ॥४॥
मन्दाक्रांता सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जात बन्धो न मेस्याबित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरन्तु । प्रालम्बन्ता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा पास्मानामावगम विरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिताः ॥५॥
यहाँ यह कहा है कि मम्यग्दृष्टि जीव के विषय भोगते हुए भी कम का बन्ध नहीं है क्योंकि सभ्यदृष्टि का परिणाम अति ममा है। इसलिए भोग ऐसे लगते है कि जैसे किसी रोग का उपसर्ग हो रहा हो इसी कारण कर्म का बन्ध नहीं है। और जो मिध्यादष्टि जीव पन्द्रिय के विषयों का सूब