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________________ मामी कोरसा : . शानी को स्वभाव के आनन्द का अनुभव हुआ है, स्वरूप के आनन्द सागर में गोते लगा डुबको मार मारकर वह बारम्बार शीतलता का अनु. भर करता है और जब उस सागर की सतह पर आ संसार पर इसको दष्टि जाती है तो सारा जगत इसे सोया हुआ प्रतीत होता है मानो यह किसी गाढ़ निद्रा में लान हो ओर बाहरो सब कुछ इसे ऐसा भासता है जैसा दिन में देखा जाने वाला स्वप्न हो । रात को हम स्वप्न देखते हैं, सुबह उठकर पाते हैं कि वह तो सब झूठ था, विशेषता यही कि जिस समय वह स्वप्न देखा जा रहा था उस समय वह सत्य ही लग रहा था पर जब नींद खुली, जागृति आई तब समझ में आया कि वह तो स्वप्न था, स्वप्न को स्वप्न जान लिया, बस खत्म हो गई बात, इसके आगे उसको कोई व्याख्या नहीं होती। इसी प्रकार उस सम्यग्दष्टि ज्ञानी को भी मोह निद्रा जिसमें वह चिरकाल से सो रहा था, समाप्त हुई। जिस समय वह नींद में था उस समय संसार उसे वास्तविक ही दिख रहा था पर जागते ही वह सब स्वप्नवत भासने लगा। सात तत्व गुणस्थानों की परम्परा- अज्ञान दशा में जब यह स्वयं को कर्म व उसके फल शरीर रूप देखता था अर्थात् जीव जब स्वयं को अजीव रूप देखता था तो आत्मिक शक्ति के कर्म में लगने से आस्रव व बंत्र होना था और कर्म की हो बनवारी होती थी, अब इसने अपने आपको ज्ञान रूप, आरूप देखना प्रारम्भ किया तो आगामी जो कर्म आते उनका आना रुक गया अर्यात संवर हो गया और पहले वध हए कर्मों की निर्जरा प्रारम्म हा गई। अब यह उपयोग को अंतर में जोड़कर शांत रस में बारबार स्थिर होता है परन्तु वहां, अपने स्वभाव में अधिक देर ठहर नहीं पाता, इसके दर्शन मोह (मिथ्यात्व) व अनंतानुबंधी कपाय तो चली गई पर अभी कषाय को अप्रत्याख्यान आदि तीन चौकड़ी शेष हैं, चारित्र मोह का सद्भाव है। पर के मालिकरने का, स्वामित्वपने का राग तो इसके नहीं रहा पर असमर्थता का राग अभी भी बाकी है अत: वह गग इसे भीतर से बाहर खींच ल.ता है और वहां पुराने संचित कर्म का उदय भी आता है क्योंकि यह अनंत-अनंत जन्मों का इकट्ठा किया हुआ है पर अब यह इसको जानने वाला तो रहता है, कर्म के फल रूप नहीं होता, अब कर्म में इसका अपनापना, कर्तापना, अहंपना नहीं रहा, इसका महंपना तो अपने में, चैतन्य में,
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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