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कर्ता-कर्म-अधिकार नानज्योतिज्वलितमधलं व्यक्तमन्तस्तयोच. श्चिच्छतीनांनिकरभरतोऽत्यन्त गम्भोरमेतत् ॥५४॥
अपने स्वरूप मे विचलित न होने वाला, अमन्यात प्रदेशों में प्रगट, अनन्त से अनन्न गक्ति का धारक, ज्ञान गुण के निरंगभेदभाग का अनंतानंत समूह होने से अत्यन्त गम्भीर जो शुद्ध चैतन्य प्रकाश है वह जैसा था वैसा प्रगट हआ। ज्ञान गुण प्रकाशित होने से कैसे फल की सिद्धि होती है, अब यह कहेंगे। ज्ञान गुण ऐसा प्रकट हुआ कि ज्ञान प्रकाश होकर जो (पहले) अज्ञानपने को लिए हुए जीव मिथ्यात्व परिणाम का करता हो रहा था सो अब अज्ञान भाव का करता नहीं रहा। मिथ्यात्व रागादि विभाव कर्म भी अब उमके रागादि रूप नहीं होते । नब जिस शक्ति ने उसका (जीव का) विभाव परिणमन करवाया था उसी के द्वारा वह फिर अपने स्वभावम्प हुआ। जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित हुआ या वही पुद्गलद्रव्य कर्मपर्याय को छोड़कर फिर पुद्गलद्रव्य हो गया ॥४५॥
॥ इनि तृतीयो अध्यायः ॥