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निर्वरा-अधिकार
१३९ जीव के शुरु परिणाम के होते हुए ज्ञानावरणादि कर्म का सूक्ष्म मात्र भी बंद कभी नही है । सम्यक्त्व के उपजने से पहले अपने अज्ञान परिणामों केास जो कर्म वाध य उन ज्ञानाबरणादि कमांक उदय का भोगता है। ऐसे सम्पकदृष्टि जीव क निश्चय ही ज्ञानावग्णादि कर्म गलते हैं । सम्यकदृष्टि जीव वह है जो उग जोवद्रव्य का अनुभव करने में समर्थ है जो "व" "पर" ग्राहक सानो पता है गाणं मपूर्ण, आर प्रकाश गुण ही जिसका आदि भूल है। एमा जा सम्यकदृष्टि जीव है उसके नए का का बन्ध नही है, पूर्ववड कर्मों का निचरा है ॥२६॥ छप्प---जो परगुरण त्यागत, शुस निज मुरग गहंत ध्रुव ।
विमल मान कर, जाम घट माहि प्रकाश ।। जो पूरब कृतकर्म, निर्जरा पारि बढ़ावत । जो नव-वन्य निगेधि मोल मारग मुल धावत ।। निःशकिनादि जम प्रष्ट गुरग, प्रष्ट कर्म प्ररि संहरत । मो पुरुष विचक्षण तास पद, बनारमो वन्दन करत ॥२६॥
मंदाक्रांता रुन्धन्बन्ध नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्ग प्रारबद्धं तु क्षयमुपनन्निजरोज म्भाणेन । मम्यकदृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्ती जानं भूत्वा नति गगनामोगरङ्ग विगाह ॥३०॥
जो जीव शद्ध म्वभावरूप परिणमा है वह ज्ञान स्वरूप होकर अपने उम गुद्ध स्वरूप में परिणमन करता है. जा अतीत, अनागत और वनमान काल में गायन प्रगट है। वह जीव के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है जहां ज्ञान मात्र वस्तु हो दिखाई पड़ती है। अनाकुलत्व लक्षण में यक्न अतीन्द्रिय मम्द को पाकर.जो जानवग्णादि रूप पुदगल पिण हैं और जीव के प्रदगा में एक क्षत्रावगाह हो रहे है उनको मेटता हुआ मम्यकदष्टि जीव धागप्रवाहम्प परिणमन करता है । वह अपने ही निशंकित, नि काक्षित इत्यादि जो आठ अंग कह है और मम्यक्त्व के सारगुण हैं उन्ही भावों में परिणमन करता है। म सम्यकाष्ट जीव का दूसरा काम यह भी होता है कि वह पूर्ववद्ध जो भानावरणादि कर्मों का पुद्गल पिण है