Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 276
________________ २४६ ममयसार कलश टीका प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान 'अमृतचन्द्रज्योति' प्रगट हुई। 'अमनचन्द्र. ज्योति पद के दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थ- मोक्ष रूप चन्द्रमा का प्रकाण प्रगट हमा अर्थात् 'शुद्ध जीवस्वरूप मोक्षमार्ग' ऐसे अर्ष का प्रकाश हुआ। दूसग अर्ष-अमृतचंद्र नाम है टीका के कर्ता आचार्य का सो उनकी बुद्धि का प्रकाश रूप शास्त्र सम्पूर्ण हुआ। शास्त्र को आशीर्वाद कहते हैं . नहीं है कोई त्रु जिसका ऐसा अबाधिन स्वरूप सर्वकाल सर्वप्रकार परिपूर्णप्रतापसंयुक्त प्रकाशमान होओ। यह गास्त्र पूर्वा पर विरोधरूप मल से रहित है, अर्थ मे गम्भीर है तथा भ्रान्ति को इसने मूल मे उखाड़ दिया है। भावार्थ इस गास्त्र में शुद्ध जीव का स्वरूप निःसन्देहरूप में कहा है। ज्ञानमात्र गडजीव के द्वारा शुद्धजीव में शुद्ध जीव को निरन्तर अनुभवगोचर करते हुए आत्मा का सर्वकाल एकरूप चेतना ही स्वरूप है। नाटक ममयमार में अमृतचन्द्र मूरि द्वारा कहा हुआ साध्य-माधक भाव सम्पूर्ण हुआ । नाटक ममयमार गास्त्रपूर्ण हुआ । यह आशीर्वाद वचन है ॥१४॥ संबंधा-प्रक्षर प्ररथ में मगन रहे सदा काल, महामुखोवा सी मेवा कामगवि को। प्रमलप्रवाधित प्रलख गुण गावना है, पावना परम शुरु भावना है भषि की॥ मिष्यात तिमिर अपहारा वर्षमान पारा, जमी उभं जामलों किरण दोपे रवि की। ऐसी है अमृतचन्द्र कला विषारूप परे, अनुभव बशा पंप टोका बुटिकवि की। दोहा-माम साध्य सापक कहो, द्वार द्वादशम ठोक । समयसार नाटक सकल, पूरण भयो सटोक ॥१४॥ शार्दूलविक्रीड़ित पस्माद्दतममूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं रागषपरिग्रहे सति यतो नातं मियाकारकः। भुनाना व यतोऽनुभूतिरखिलं बिना क्रियायाः फलं तविज्ञानघनोधमग्नमधुना किरिया किंचित्तिल ॥१५॥ निश्चय से जिसका अवगुण कहेंगे ऐसा जो कुछ एक पर्यायार्षिक नय

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