Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 270
________________ २४० समयमार कलश टीका नय होते हैं। ऐसा करने हुए बहुत विकल्प उपजते हैं, जीव का अनुभव खो जाता है। इसलिए निर्विकल्प ज्ञानमात्र वस्तु अनुभव करने योग्य है || ७॥ मया-प्रतिरूप नासनि अनेक एक थिर रूप, प्रथिर इत्यादि नान रूप जीव कहिये । दोसे एक नय को प्रतिपक्षो नं प्रपर दूजी, नं को न दिखाय वाद विवाद में रहिये ॥ थिरता न होय विकलप की तरंगनि में, चंचलता बढ़े अनुभौ दशा न लहिये । ताते जीव अचल प्रबाधित प्रखण्ड एक ऐमो पद माधिके समाधि सुख गहिये ॥७॥ गद्य न द्रव्येण खंडयामि न क्षेत्रेरण खंडयामि न कालेन खंडयामि । न भावेन खंडयामि सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रः भावोऽस्मि || ८ || मैं वस्तुस्वरूप हूँ, चेतनामात्र ही मेरा सर्वस्व है, समस्त भेद विकल्पों से रहित हैं, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रूप उपाधि से रहित हूं। जीव स्वद्रव्यरूप है - ऐसे अनुभवने पर भी मैं अखण्डित हूँ । जीव स्वकालरूप है - ऐसे अनुभवने पर भी अखण्डित हूँ। जीव स्वभावरूप है-ऐसे अनुभवने पर भी अखण्डित हूँ । भावार्थ - एक जीव वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकान, स्वभावरूप चार प्रकार के भेदों द्वारा कही जाती है तथापि चार सत्ता नहीं है. सत्ता एक है। दृष्टान्त-- चार सत्ता इस प्रकार मे नही है जिस प्रकार एक आम्रफल चार प्रकार है, इसमें कोई अंश रस है, कोई अंश छिलका है, कोई अंश गुठली है, कोई अंग मीठा है, उसी प्रकार एक जीववस्तु में ऐसा नहीं है कि कोई अंग जीवद्रव्य है, कोई अंश जीव क्षेत्र है कोई अंश जीवकाल है कोई अंग जीवभाव है। ऐसा मानने पर सर्व विपरीत होता है। इस कारण इस प्रकार है कि जैसे एक आम्रफल स्पर्श रस गंध वर्ण विराजमान पुद्गल का पिण्ड है, स्पर्शमात्र से विचारने पर स्पर्श मात्र है, गंधमात्र से विचारने पर गंध मात्र है और वर्ण मात्र से विचारने पर वर्ण मात्र है वैसे ही एक जीववस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव विराजमान है इसीलिए ग्वद्रथ्यरूप मे विचारने पर स्वद्रव्यमात्र है, स्वक्षेत्र रूप से विचारने पर स्वक्षत्रमात्र है, स्वकालरूप से

Loading...

Page Navigation
1 ... 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278