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मुढारम-द्रव्य अधिकार करणों के जाल में रियो विवानर, करणों को प्रो. मानभान दुति दुगे। प्राचारकहें कर सोमोजोब, करणी मग नि बम्प पुरी है ॥३॥
उपजाति प्रत्याल्याय भविष्यकम समस्तं निरस्तसम्मोहः । मात्मनि तन्यात्मनि निःकमरिण नियमात्मना बतं३॥
जिमको मिध्यान्व कप अगद परिणनि चली गई हैमा में आगामी काल सम्बन्धी जितने भी गगादि अनद विकल्प है चमब मरे पर बाप से भिन्न हैमा जानकार उन ग्रहणम्प स्वामित्वकाहारकर, जाम चंतना मात्र है, ममम्त कमों की उपाधि महिन हम अपने बम्प में अपने ही मान के वन म निरन्तर अनुभव ग में प्रवनंन करता ह॥३५॥ चौपाई-मया मोहकी परिणति फलो। नातं कर्म चेतना मंगो। मान होत हम समझी एनो। जीव मदीय भिन्न परमेती ॥३५॥
उपजाति ममस्तमित्येवमपास्य कर्म कालिकं शुवनयावलम्बी। बिलोनमोहो रहितं विकाचिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥३६॥
पूर्वोक्न प्रकार जितने भी अमीन, अनागत, वर्तमान काल मम्बन्धी जानावरणादि दृश्य कम व गगादि भानक उनको जीव में भिन्न जानकर उनका स्वामित्वपना त्याग कर अगद परिणांन. मिटने के उपरान उस जान म्बम्प जीव वन का निरन्तर आम्वादन करना है। जिसका मिथ्यात्व परिणाम मन मे हा मिट गया हैएमा में जी गग-प-मोह कप अश परिणति में रहित है. उमी गुट जीव वस्तु का आलम्बन ले रहा हूँ॥३६॥ चौपाई- त्रिकाल करणीसों न्यारा चिज बिलास पर जग उनपारा।
गग बिरोष मोह मम माहो । मेरो अवलम्बन मुझमाही।
विगलन्तु कविषतरफलानि मम भुक्तिमन्तरेष। संचेतवेहमवलं तन्यात्मानमात्मानं ॥३७॥