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समयसार कलश टीका तसे एक प्रातम हरब गुण पर्षय है, अनेक भयो पं एकरूप दरमत है॥१४
शालविक्रीडित टोकोगविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्वाशया वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेभिन्न पशुः किञ्चन । मानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्वलं स्थावादी तदनित्यतां परमृशंश्चिद्वस्तु वृत्तिकमात् ॥१५॥
कोई मिथ्यादष्टि एकांतवादी जीव ऐसा है जो वस्तु को द्रव्यरूप मानता है पर्यायरूप नहीं मानता है इसलिए समस्त ज्ञेय को जानना हा जान जब शंयाकार परिणमन करता है तो एकांतवादी उसकी अशुद्ध मानता है, ज्ञान की पर्याय नहीं मानता है । म्यादादी जीव उसका समाधान करता है कि द्रव्यदृष्टि में देखने पर ज्ञान वस्तु नित्य है तथा पर्याय दृष्टि से अनित्य है। इसलिए जिस समय समस्त जय का जान रहा है उस समय ज्ञय की आकृतिरूप ज्ञान की पर्याय परिणमन करता है, ऐसा ज्ञान का स्वभाव है, अशुरूपना नही है। एकांतवादी जय का ज्ञाता होकर पर्यायरूप परिणमन करता है। उत्पादरूप तथा व्यय रूप अशुनपने से रहित ज्ञान गुण की पर्याय से भिन्न ज्ञेय के जानपने रूप से रहिन वस्तु, मात्र कटस्थ (अटल, जड़) रहती है ऐसा कुछ विपरीतपना मान कर एकांतवादी ज्ञान को ऐसा बनाना चाहता है कि सर्व काल एक-सा रहने वाले, समस्त विकल्पों मे रहित ज्ञानवस्तु के प्रवाह रूप जीववस्तु है । उसका स्यावादी समाधान करता है । कोई पर्याय उपजे, कोई विनशं इस भाव को रखते हुए स्यादादी ज्ञानमात्र जीव द्रव्य का अविनश्वररूप से अनुभवन करना हुमा, यपि पर्याय द्वारा अनित्यपना घटित होता है, तथापि ज्ञान मात्र जीव वस्तु का सर्व काल एक-सा, समस्त विकल्पों से रहित स्वाद लेता है।
भावार्थ-पर्याय द्वारा जीव वस्तु अनित्य है ऐसा स्यादादी अनुभव करता है ॥१५॥ सबंबा-कोउ बालबुद्धि कहे मायक शकति जोलों,
तोलों भान प्रशुरु जगत मध्य जानिये । नायकति काल पाय मिटि जाय , तब विरोष बोष विमल बसानिए ।