Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 260
________________ २३९ समयसार कलश टोका जान को जानने कप पर्याय है जान बस्नु को मना भिन्न है। मिथ्यावादी एकांत. दष्टि जीव हय भार उपादेय के ज्ञान में हित स्वच्छाचाररूप प्रवर्तन करता है। भावार्थ - एकानवादा जीव जय को शक्ति का ज्ञान में भिन्न नहीं मानता है। जिननी जय की पक्ति है वह मय ज्ञान में है ।मा मान कर सी बाद में प्रयतन करना है कि नाना गनिम्प ज्ञान है, जय है ही नहीं। जिननी भी जीवादि पदार्थ रूप जय वस्तु है, उनका नक्तिरूप गण पर्याय अंश भदा का मना का ज्ञानमात्र जीव वम्न में गभित मान कर. मी प्रतीति करक, जानमात्र जीववस्तु का विपगताप में अनुभव करता है। भावार्थममग्न द्रव्या का शक्ति जानगानर है और उनका प्राकृतिकर जान ने परिणमन किया है. माना व गवंगत जान का हा मानना है। जंय को आर ज्ञान की भिन्न मना के अम्निन्य को नहीं मानता। मिथ्यावादी भिन्न मना के अस्तित्व का नहीं मानता। मिथ्यावादा में कोई भाव परभाव नही है जिमग उग छ र हानी व ममग्न ग्पगं, ग्म, गंध, वणं, शब्द न्यादि इन्द्रिया के विपया को तथा मन-वचन-काय और नाना प्रकार की जय की अक्तियों का निम्नय ग मानना है कि में नगर है. मन ह, वचन है, काय है। में स्पन-ग्म गध-वर्ण-गब्द इद पग्भावा का अपना आप जानकर प्रवनन करना है। गा का गमाधान न्यावादा करना है। जमी मिथ्यादष्टि एकातवादी का मान्यता है चम्नम्यिन धमी नहीं है। अनकान्नवादी जीव मिथ्यात्व म हित होकर प्रवनन करता है। ज्ञान वस्तु का जानन मात्र की शक्ति को उसका अन्यन्न दर प्रतानि है। न्याहादा जीव मा मानना है कि समम्त जय की अनेक गक्ति की आकृतियों में ज्ञान पर्याय रूप से परिणमन करता है। जानवग्न के अस्तित्व मवधी उमकी विपरीत बर्बाद नहीं है । स्थादादी जीव को सच्ची दष्टि में आलोक मिला है बार उसका साक्षात् अनुभव अमिट है ॥१६॥ संबंया-कोउ महामूरख कहत एक पिड माहि, जहांलों प्रचित चित प्रंग लहलहे है। जोगरूप भोगरूप नानाकार जयरूप, जेसे मेद करम के तेते जीव कहे है। मतिमान कहे एक पिंड मांदि एक जीब, ताहो के अनंत भाव ग्रंश फैलि रहे हैं। पुदगलसों भिन्न कर्म बोगसों प्रतिम सा, उपजे बिनसे घिरता स्वभाव गहे है ॥१३॥

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