Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 258
________________ २२८ समयसार कलश टीका करना है कि जानपने की भक्ति में युवत में जीव वस्तु हं- अविनम्वर मान मर्षया-कोउ दुबुद्धि को पहले न हतो जीव, देह उपनत उपग्यो है प्रब पारके। जोलोंहतोनों देह पागे फिर हमसे, रहेगो पलम ज्योति ज्योतिमें ममाइके। मरडि कहे जीव प्रनादिकोहपारि, जबजानी होयगो कर कान पाके। तबही मों पर नजि अपनो स्वरूप भीज, पागो पग्म पर करम नसाइके ॥११॥ स्रग्धरा विश्रांतः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः सर्वस्मान्नियतस्वभावममवन जानाद्विमको भवन स्थाढावी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ॥१२॥ कोई एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को पर्यायमात्र मानना है, द्रव्याप नहीं मानना है। जितने भी समस्न मंय वस्तु की शक्ति रूप स्वभाव है उनको जान जानता है और जानना हुआ उनकी आकृति में परिणमन करता है। इस तरह शंय की नक्ति की आकृति रूप ज्ञान की पर्याय है उनमे जान वस्तु की सत्ता को मानता है। वह एकांतवादी जीव उससे भिन्न जो अपनी शक्ति को सता मात्र है उसको नही मानता है। स्यावादी उसका समाधान करता है किसान अपने सहज स्वभाव में समस्त मेय शक्ति को जानता है। परन्तु अपनी जान शक्ति के विचार से अस्तिम्प है। एकान्तबादी ने निश्चय किया हआ है कि ज्ञेय वस्तु की अनेक दिन की मारुतिरूप परिणमन करती हुई शान वस्तु पर्याय मात्र ही है। उसने ऐमा मठा अभिप्राय बना लिया है कि ज्ञान की पर्याय जो श्रेय की शक्ति की भाकृति रूप है उसी ने जानवस्तु के अस्तित्वपने को अवधारण किया है। एकान्तवादी जीव मानमात्र की निज भक्ति के अनादि निधन माग्वन प्रताप से सर्वथा शून्य है।

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