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समयसार कलश टीका
शार्दूलविक्रीडित पूर्वालम्बितबोध्यनाशममये ज्ञानस्य नाशं विदन् सोबत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ॥१०॥
कोई मिथ्यादष्टि जीव गेमा है कि वस्तु को पर्यायमात्र मानता है द्रव्यस्प नहीं मानता है । जय वस्तु के अनीन-अनागत और वर्तमान काल संबधी अनेक अवस्था भेद हैं उन सब को जानते हुए जान के पर्यायरूप अनेक अवस्था भेद होते है। उनमें जेय गे मबंधित पहला अवस्था भेद विनगता है और उमके विनगने में उमकी आकृति म्प परिणमा ज्ञान की पर्याय का अवस्था भेद भी विनगता है। उस अवस्था भद के विनाने में एकांतवादी मल में जान वस्तु का विनाश मानना है । म्यादादी उसका यह ममाधान करना है. कि ज्ञान वस्तु अवस्था भेद के विचार मे तो विनाग को प्राप्त होती है परन्तु द्रव्य के स्वरूप के विनार में अपनी जाननपने की अवस्था में गाग्वन हैन उपजती है और न विनगती है। एकान्तवादी वस्तु के स्वरूप को माधने में अवश्य ही भ्रष्ट है क्योंकि वह वस्तु के अस्तित्व को जानने में अति ही गुन्य है। एकानवादी ऐसी अनुभव रूप प्रतीति करता है कि जंय वस्तु को अवस्था का जानपना मात्र ज्ञान है उसमें भिन्न कुछ मनाम्प जानवस्तु नहीं है, अंशमात्र भी नहीं है। कभी पहले अवसर में ज्ञान की पर्याय जयाकार की आकृतिस्प हई थी और किमी विनाग मंबंधी अवमर में वह आकृति विनाग को प्राप्त हुई तो एकांतवादी उमको जीव वस्तु का ही नाग मानता है। उमको म्यादादी मंबोधता है। म्यादादा जैमा मानता है वैमा ही है। म्यादादी अनेकान्त अनुभवशील जीव को त्रिकालगोचर जानमात्र जीव वस्तू का अनुभव प्रगाढ़ है, दर है। वह कहता है कि समस्त जंय अथवा शेयाकार परिणमित जान को पर्याय अनेक भेदों में अनेक पर्यायरूप होती हैं और अनेक बार विनशती हैं। स्याद्वादी जीव को ज्ञानमात्र जीववम्त की त्रिकाल शाश्वत ज्ञानमात्र अवस्था के अस्तित्व का अनुभव होता है ॥१०॥ संबंया-कोडकर कहे काया जीव दरोउ एक पिंड,
जब देह नसेगी तब हो जोब मरेगो।