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स्याहार अधिकार
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जानने के कारण, वस्तु मात्र को साधने मे भ्रष्ट है, उसका अनुभव करने मे भ्रष्ट है। एकान्तवादी ने मी बदि अपना गखी है कि पर्यायरूप प्रेय वस्तु के प्रदेशों को जानते हुए जान को जो परिणति गंय वस्तु की आकृतिरूप परिणमन करती है उमसे रहित शुढ भान है इसलिए मानवस्तु के पर्यायरूप में भी जयाकार परिणमन का त्याग करता है। मान का चैतन्य प्रदेश स्थिर है. अन उमकी जयम्प परिणति नहीं है, ऐसा मानता है।
भावार्थ-एकान्लवादी मानता है कि ज्ञान वस्तु जय के प्रदेशों के जाननपने में जब हित होती है नव गद होती है। जैमा एकान्तवादी मानता है वैमा नही है, जैमा स्याद्वादी मानना है, वैमा है। म्यादादी अनेकांतदृष्टि जीव मा नहीं मानता कि जानवम्न जय के क्षेत्र को जानती है और अपने प्रदेशों में सर्वथा शन्य है। वह एमा मानना है कि जानवस्तुजेय के क्षेत्रको जानती है, परन्तु जय के क्षेत्ररूप नहीं है। म्यादादी मानता है कि मान जय के क्षेत्र की आकृतिरूप परिणमन करता है तो भी ज्ञान अपने क्षेत्र में है। वह अनुभव करता है कि ज्ञान वस्तु अपने प्रदेशों में है। ज्ञान ने श्रेय वस्तु की आकृति कप परिणमन किया है मा जानना है तो जानो तपापि इतना ही ज्ञान का क्षेत्र नहीं है, मा मानना हआ म्याठादी ज्ञान की पर्याय ने जो परक्षेत्र की आकृति कप परिणमन किया है उममे भिन्न शान वस्तु के प्रदेणों का अनुभव करने में ममर्थ है। हम नह स्यावाद वस्तु के स्वरूप का साधक है नपा एकांतवाद वस्तु के स्वरूप का पातक है.---अन स्यावाद उपादेय है ||
संबंया-कोउ शून्यबारी को मेय के विनाश होत,
शानको बिनाशोप कसो कसे जीजिए। ताने जीवितध्यता की पिपला निमित्तमब, अवकार परिणनि को नाश कोजिए।
मन्यबारी को भैया हो नहीं मिला, अपनों विज्ञान भित्र मान लीजिए। जानकीमति साषिप्रमोशागाध करम कोस्यानिके परम वीथिए