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स्याद्वाद अधिकार
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भावार्थ- -ममग्न जय ज्ञान में उद्दीन है परन्तु शेयरूप है, ज्ञान जयरूप है । स्यादादाजीव से रहित व रागादि अश परिणति
नही
हुआ
मे रहित अनुभव ज्ञान के प्रताप से युक्त है ॥ ॥
सबंधा - कोउ मन्द कट्टे धर्म प्रथमं
प्राकाश काल,
रूप जग में 1
पुद्गल जीव सब मेरो जाने न मरम निज माने प्राप पर वस्तु. बांधे दृढ़ करम परम यांचे जग में ||
ममिति तत्र शुद्ध प्रनुभो प्रभ्यामे तात एरको त्याग करे पग-पग में । अपने स्वभाव में मगन रहे घाटों जाम, धारावाही पथिक कहावे मोक्ष मग में ॥ ७ ॥
शार्दूलविक्रीडित
भिन्नक्षेत्र नियण बोध्यनियतस्यापारनिष्ठः मदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्यद्रादवेदी पुनस्तित्यात्मनिवातत्रोध्य नियतव्यापारशक्तिभवन् ॥ ८ ॥
कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को पर्याय मानता है, द्रव्यरूप नहीं मानना है। जितना भी गमन वस्तु का आधारभूत प्रदेश पुज है उसको ज्ञान जानता है और जानता था उसकी आकृतिरूप परिणमन करना है उसी का नाम तो है उस पत्र को मिध्यादृष्टि जीव ज्ञान का क्षेत्र मानना है। वह यह नहीं मानना कि उस जय से सर्वथा भिन्न चैतन्य प्रदेश मात्र ज्ञान का क्षेत्र है। जीव का समाधान करने है कि ज्ञानवस्तु परक्षेत्र को जानती है परन्तु अपने क्षेत्र है। पर का क्षेत्र ज्ञान का क्षेत्र नहीं है। एकान्तवादी मिध्यादृष्टि जीव 'ज्ञानमात्र जीववस्तु है ऐसा नहीं माध सकता है। वह अनादिकाल मे जो अपने नंतव्य प्रदेश में अन्य समस्त द्रव्यों का प्रदेश पज है उनमें जो ज्ञान का उन आकृतिरूप परिणमन हुआ है उनने मात्र को ज्ञान का क्षेत्र मानता है। मिथ्यादृष्टि जीव यही मानता और अनुभव करना है कि जीव वस्तु का परक्षेत्र मुन्य से ही परिणमन