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ममयमार कला टीका मेय के विनाश होत मान को विनाश होय, ऐमी बाके हिरहे मिथ्यात की प्रलट है।
नाम समकितवंत कहे अनुभौ कहानि, पर्याय प्रमाण मान नानाकार नट है। निविकलप प्रविनश्वर दरब रूप, जान जय वस्तुमा प्रध्यापक प्रघट है ॥६॥
शार्दूलविक्रीडित मवंद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावामितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येष विश्राम्यति । स्याद्रादी न ममम्तवस्तुष परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्निर्मलशद्धबोधहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ॥७॥
कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को द्रव्यरूप मानता पांयाप नही मानता है, समलिए ममग्न जय वस्तु का ज्ञान में ही भित मानना है। वह गा कहता है- जब उमण को जानना है नव ज्ञान उटण है, जब नीताल को जानता है तब ज्ञान गीनन है। उसकी मम्बोधते है कि जान जंग का नाता मात्र ना परत नेग का गण जंय में हो है. ज्ञान में जय का गुण नहीं है। मिथ्यादृष्टि एकानवादी जीव को प्रान्ति हुई है कि जय को जानने ममय जो ज्ञान की पर्याय ने जेय को आकृतिरूप परिणमन किया है, वही निविकल्प मता मात्र ज्ञान वस्तु है । गेमा एकांतवादी मिथ्याप्टि जीव वग्न के स्वरूप को माधने में असमर्थ होता हुआ अन्यंन मंद खिन्न होता है। भावार्थ ---जंगे उरण को जानते समय उष्ण की आकृति जान का परिणमन होता देख कर मिश्यादष्टि जीव ज्ञान का हो उष्ण स्वभाव मानता है। अनादिकाल के. मिश्या मरकाग के कारण मिथ्यादष्टि जीव स्वभाव में भ्रष्ट हआ है। जितने भी समम्न द्रव्य हैं उन मन द्रव्यों के स्वभाव जीव (द्रव्य) में गभित हैं. मिध्यादष्टि जीव कोमी प्रतीति होती है। परंतु एकांतवादी जैमा मानना है वैमा नहीं है, बल्किायादादी जैमा मानना है वंसा है। अनेकांना वादी जीव जानमात्र जीव वस्तु को माघ मकता है, उसका अनुभव कर मकना है। मम्यग्दृष्टि जीव ऐसा है कि जो ममम्न जय का स्वरूप प्रान में प्रतिविम्बित हुआ है उमका ज्ञानवस्तु से भिन्नपना अनुभव करता है और इस प्रकार (द्रव्य विचार मे) उसमें ज्ञान को नास्ति रूप देखता है।