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समयसार कलश टोका पर्याय में अनेक है "मा सिद्ध करता है। एकान्तवादी मिथ्यावृष्टि जीव मानमात्र जीव वस्नु को न माध मकता है और न अनुभव में ला सकता है यपि वह प्रकाश रूप में प्रगट है। वह ऐसा मानता है कि जब तक जय का आकार ज्ञान में है, जान जय को जानता है तब तक जान जंय के आकार में अनुट हो रहा है और इसलिए मिय्यादृष्टि एकान्तवादी उस अशुद्धपने के प्रक्षालन का अभिप्राय करता है ।
भावार्थ-जान जय को जानता है यह उसका स्वभाव न मान कर वह उममें अशुदपना मानना है। ऐमे मिथ्यादृष्टि एकांतवादी का अभिप्राय
सा है कि ज्ञान का परिणाम जब समस्त जंय के जानपने से रहित होकर निविकल्परूप हो जाता है नब जान शुद्ध है। उसके प्रनि म्याद्वादी सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञान के एक व अनेक रूप स्वभाव को सिद्ध करत है। वही सम्यग्दष्ट उसको माध मकना है--वही उसका अनुभव कर सकता है । म्यादादी अनुभव करना है कि जान महज ही शुद्ध स्वरूप है, ज्ञान अनेक जयकार रूप होने में पर्याय में अनेक है तथापि द्रव्यम्प में एक है। यर्याप द्रव्यरूप में एक है ना भी अनेक जयाकार रूप परिणमन करने में अनेकपने को प्राप्त होता है - मे म्वाको अनकातवादी साध मकना है, अपने अनुभव में ला सकता है। इस प्रकार वस्तु को द्रव्याप और पर्यायरूप अनुभव करने में वह म्यादादी नाम पाता है ॥५॥ सया--कोउ कुषो को मानमाहि य को प्राकार,
प्रतिभाम रयो .है कलंक ताहि बोहए। जब ध्यान जलसों पलारिके पवल की, तब निराकार शुर मानई होहए।
तासों स्याहारी कहेनान को स्वभाव यह, अपको प्राकार वस्तुमाहि कहाँ बोहए। जैसे नामारूप प्रतिविम्मको झलक होणे, पप तथापि पारसी विमल जोइए ॥५॥
शार्दूलविकोरित प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्पिरपराध्यास्तितावितः स्वाम्यानवलोकनेन परितः शून्यः पसुनायति ।