Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 265
________________ साध्य-साधक अधिकार २३५ उतपत्तिरूप नाशरूप विचलरूप रतनत्रयादि गुग मेड सों अनंत है। मोई जीव दग्य प्रमाग सदा एकरूप, ऐमे शुद्ध निश्चय स्वभाव निरंतर है। स्याववाद मांहि माध्यपद प्रधिकार कयो, प्रब प्रागे कहिवे को माधक सिद्धन है। दोहा- माल केवल दशा अथवा मिल्स महंत । माषक प्रविगत ग्रादि बुध क्षोणमोह पग्यंत ॥१॥ वसंततिलका नकान्तमंगतमा स्वयमेववस्तु तस्वव्यवस्थिििमति विलोकयन्तः । स्यादादशुद्धिधिकामधिगम्य मंतो जानी भवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः ॥२॥ हम प्रकार माग्दष्टि नीव जी अनादि कालग कमंबध मयुक्त य माम्प्रन सकल कमां का विनाश कर मोक्ष पद को प्राप्त होते है। कायली के कंह हा मार्ग पर ही चला है। उग मागं का जलपन कर अन्य मार्ग पर नहीं चलने है। जो प्रमाणाम अनकानावग्न न. उपदेग ग उनका जान निमल हआ है, उसका महायना पाकर य जीवद्रव्य के द्रव्याप नथा पयांया म्वरको म्याद गमला लोनन म माक्षात प्रत्यक्ष रूपम देखते है ॥७॥ कविन-मानष्टि मिन्ह के घट अंतर, निरहे द्रव्य मुगुरण परजाय । जिनके महम रूप दिन दिन प्रमि, म्याद्वार साधन प्रषिकाय। केलि प्रगीत माग्ग मुस्ख, वितरण गठहराय। ते प्रवीण करि भोग मोहमान, प्रविचल होहि परमपद पाय ॥२॥ वसंततिलका मानमात्र निज भावमयीमकंपा भूमि भयंति कथमप्यपनीतमोहाः ।

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