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म्यावाद अधिकार
२१७ शार्दूलविक्रीड़ित विश्वं मानमिति प्रतयं सकलं दृष्ट्वा स्वतस्वाशया भूत्वा विश्वमय: पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते । पत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वारदर्शी पुनविश्वाड्रिनमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्वं स्पृशेत् ॥३॥
कोई मिथ्यादष्टि मा है जा ज्ञान का द्रव्य प मानना है, पयाय का नहा मानना है। ना जा जावदर का जानवानप मानता है. वम श्रेय जा पुदगल, धर्म, अधमं, आकाश, काल व्य है उनका भी प्रय वस्तु नहीं मानता है, ज्ञान वस्तु ही मानना है। मे व्यक्नि के प्रति समाधान ऐमा है कि जान जय का जानता है मा जान का म्वभाव है तथापि जय वस्तु जयम्प है, मानम्प नहीं है। एकान्नवादी मिथ्यादष्टि जीव अन्यन्त दढ़ प्रतीति करना है कि बनाक्य म जा कुछ भी है वह जानवम्नु है, उसमे कुछ हय है, कुछ उपादय मा भद नहीं करना । मार लाक्य को ही उपादय मानता है। ओर एमा प्रतानि हान म निक होकर पा के ममान प्रवनन करना है। 'म हा विश्वमा जान कर विश्वम्प होकर प्रवर्तन करता है। भावार्थ- मानवग्नु पयांग मजयाकार हाना है परनु मिथ्यादष्टि जीव पायक. भर का नहीं मानना है। उसका यह उना है कि अयवस्नु भयका नहीं है। अंग एकानवादा करना है, वेग जान का वस्नुपना मिड नहीं होना जमा म्यादादी करना है सा बानुगना जान का सिरहाना है । एकातवादी मानना है कि मन कुछ जान बना है, पर एमा मानने मना नाय लक्षण का अभाव हाना है । आर नाय नक्षण का अभाव होने ने वस्तु को मना नहीं सिड होनी ! म्यादादी कहना है कि मानवम्न का लक्षण ही ममम्न प्रयका जानपना है, एमा मानन में ज्ञान का स्वभाव मिट होता है। स्वभाव मिद होने में वन मिद होना है.--इमलिए कहा है कि स्याद्वाददर्शी वस्तु को ध्यपयांयका मानना है, इमलिए अनकान्नवादी जीव जान बम्त को मिड करने में समर्थ है। म्यादादी मानना है कि मानवस्तू समस्त प्रेय में निराली है और ममम्न अय में भिन्नम्प अपने द्रव्य गण पर्याय मसी है वैसी ही अनादि काल मेम्बय मिट नियन। जान वस्तुको ऐसा क्यों माना : क्याकि जो भी वन्नु है वह पर वसुका आमा बहर नहीं है । भावा-जमे भानाम् जयकर मे नही है, मानकर से है, वैसे ही