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स्याद्वाद अधिकार
कहूं मुक्तिपद की कथा, कहूं मुक्ति को पंथ । जैसे घत कारिज जहां तहां कारण दधि मंथ ॥ एक रूप कोऊ कहे, कोऊ प्रगणित अंग । क्षणभंगुर कोऊ कहे, कोऊ कहे अभग ॥
नय अनन्त इहविधि कही, मिले न काहू कोय | जो नय नय साधन करे, स्थाद्वाद हे मोप ॥ स्याद्वाद अधिकार प्रव, कहूं जंन को मूल । जाके जाने जगन जन, लहे जगन जल कूल ॥१॥
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शार्दूलविक्रीडित
बाह्यर्थ: परिपीतमुज्झितनिजव्यक्ति रिक्की मबविभान्तं पररूप एवं परितो ज्ञानं पशोः सीदति । ततसदिह स्वल्पत इति स्थाद्वावाविनस्तत्पुनइंरोन्मग्नघनस्वभावमरतः पूगं समुन्मज्जति ॥ २ ॥
जीव के ज्ञानमात्र स्वरूप के सम्बन्ध में भी चार प्रश्न उठते है. (१) ज्ञान शय पर निर्भर है या अपनी गामध्यं मे स्थित है (२) ज्ञान एक : या अनेक है । ३) ज्ञान अग्निरूप है या नाग्नि है ओर (४) ज्ञान नित्य है या अनित्य है। उनके उत्तर में कहना होगा कि जितना बस्तु है व सब द्रव्यरूप है व पर्यायरूप है । मानिए ज्ञान भी द्रव्यरूप है और पर्यायरूप है । द्रव्य रूप का अर्थ है निविकल्प ज्ञानमात्र वस्तु । पर्यायरूप अवस्था में स्वयं को अथवा पर को जानना हुआ जय की आकृति के प्रतिविम्ब रूप ज्ञान परिणमन करता है ।
भावार्थ- -जय का जानने रूप परिणति ज्ञान की पर्याय है । इसलिए ज्ञान का जब पर्याय रूप से कहते है ना ज्ञान जय पर निर्भर है परन्तु जब वस्तु मात्र का कथन करते है तो वह अपना मला मे है अपने महारं का 1 पहले प्रश्न का समाधान तो यह हुआ। दूसरे प्रश्न का समाधान यह है कि पर्यायमात्र का कथन करने हुए ज्ञान अनेक है, पर जब वस्तु मात्र का विचार करते है तो एक है। नीमरे प्रश्न का उत्तर है कि ज्ञान की पर्याय का कथन करते हैं तो ज्ञान नाम्निरूप है ओर वस्तु स्वरूप का विचार करें तो अस्तिरूप है । इसी प्रकार चौबे प्रश्न का उत्तर है कि पर्याय मात्र के विचार से शाम