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समयसार कलश टोका
भावा--गद स्वरूप के अनुभव म मवं कार्य की सिद्धि है। जो आम्मा के गुण विभावरूप परिणमन कर रहे थे व स्वभाव रूप हए और आन्मा जंगा था वमा प्रगट हा ।।४।। मया ---अबहीने बरन विभावमों उलटि प्राप,
मम पाय अपनो म्यभाव गहि लीनो है। नबहोतं जो जो लने योग्य मोमो सब लीनो। जो जोन्याग योग मो मो मा छाडि दोनो है।
ने को न रही ठौर त्यागवे को नाहि प्रौर । बाकी कहां उबरयो जु कारज नवीनो॥ मंगस्यागि, अंगस्यागि, वचन तरंग त्यागि, मन न्यागि, बुद्धि त्यागि, प्रापा शुरु कोनो है ॥४३॥
छंद एवं जानस्य शुद्धम्य देह एव न विद्यते ।
तनोदेरमयं नानुनं लिङ्ग मोक्षकारणम् ॥४४॥ पूर्वोक्त प्रकार माधं गा गदम्बाप जीव के गरीर ही नही है अर्थात नगेर है वह भी जीव का ग्वाप नहीं है -टमलिए द्रव्य-क्रियाम्प यतिपना या गृहस्याना जोव के मकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष का कारण ना नहीं है।
भावार्थ---कोई मिथ्यष्टि जीव द्रव्य क्रिया को मोक्ष का कारण मानता है, तो उसे समझाया है ।।४।। दोहा-शुबमानके देह नहि, मुद्रा मेष न कोय। तात कारण मोक्षको,म्य लिगनहि होय॥
लिग म्यारो प्रगट कला बचन विमान। प्रष्टमहादि प्रष्टसिद्धि, पर होइनमान ॥४॥
वर्शनशानवारित्रलयात्मा तस्वमात्मनः ।
एक एव सदा सेम्पो मोक्षमार्गों मुमुलगा ।४५॥ जो पुरुष मोम को उपादेय मानता है उसको शुद्ध स्वरूप का अनुभव सकल कर्मों के विनाश का कारण है-ऐसा समझ कर उसका निरन्तर