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शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार जिसकी वह पर्याय है उस सत्तामात्र वस्तु को न मानना महा मिथ्यात्व
सबंया - एक परजाय एक सममें विनसि जाय,
दूजो परजाय दूजे समं उपजति है। ताको छल पकरि के बौड कहे समै सम, नवो जीव उपजे पुरातन को अति है।
ताते माने करमको करता है और जोब, भोगता है और, वाके हिए ऐसी मति है। परजाय प्रमाणको सरवथा बरखजाने,
ऐसे तुरखुटि को अवश्य दुरगति है। दोहा-कहे प्रमातम को कथा, बहे न प्रातम सुनि। रहे अध्यातम सों विमुख, दुराराषि दुरबुद्धि ।
दुरसी मिभ्यामती, दुरगति मिथ्यावाल, गहि एकंत दुरबुद्धि सों, मुकत न होइ त्रिकाल ॥१५॥
शार्दूलविक्रीडित प्रात्मानं परिशुद्धमोप्सुमिरतिव्याप्ति प्रपद्यान्धक: कालोपाधिबलावशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परः । बैतन्यं भरिणकं प्रकल्प्य पृथुकः शुद्धर्जुमूत्र रतरात्मा व्युज्झित एष हारवबहो निःसूत्रमुक्तमिमिः ॥१६॥
एकान्नपना मानना मो मिथ्यान्व है। जिसका अभिप्राय ही भिन्न (गलन) हैसे मिथ्याइष्टि जीव को शद चैतन्य वस्तु ठोक मे सधती नहीं। द्रव्यापिक नय में रहित वर्तमान पर्याय मात्र ही वस्तु का म्वरूप अंगी. कार करने रूप एकांत दृष्टि में मग्न और यह मानने वाले बौखमतावलम्बी जीव को कि एक समय में एक जीव मूल से ही विनशता है और अन्य जीव मूल से उपजता है, जीव स्वरूप की प्राप्ति नहीं है। आगे और मतांतर कहते हैं। कोई एकांतवादी मिथ्यादष्टि जीव मे हैं जो जीव का गढपना नहीं मानते हैं उसको सर्वथा अशुद्ध मानते हैं, उन्हें भी वस्तु की प्राप्ति नहीं है। क्योंकि अनन्तकाल से जीव द्रव्य कम के साथ मिला चला आ रहा है उससे अलग तो कभी हुमा ही नहीं। अतः वे जब ऐसी प्रतीति करते हैं कि जीव