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ममयमा कलश टीका पोरी बहन नो गगादि अगद परिणति होगी ही। इसका उत्तर है कि पगढव्य का जानना हा उम मप ना निरशमात्र भो नही हाता। अपना विभाव परिणत करन म विकार हाना है आर आना परिणत शुद्ध हा ना निविकार है। आगे कहते है कि यह जा मिथ्यादष्टि जावांग है । उप-माह म्प अगद परिणति में मग्न क्या हो रही है ? सकल पर द्रव्य में भिन्नपना ना महज हो म्पाट है फिर वह एसी प्रताति को क्या छाड़तो है ?
भावार्थ --वस्तु का म्बाप ना प्रगट है-फिर भी यह उसम विचलित होती है, यह एक पग अचभा है। अज्ञानी जीव की ऐसी बुद्धि है कि वह पद जीव दव्य कवभाव के अनुभव में गन्य है। चेतना मात्र जीव दुख्य नी ममम्न जय का जानता है लिए राग-दष-मोह रूप किसी भी विक्रिया में परिणमन नहीं करना है। वह जीव द्रव्य अखड है. समम्न विकल्पों में हम है. अनन्तकाल नसभा अपने स्वरूप में विचालन नहीं होता. व्यकम-भावकम-नाकम म गहन है तथा उमका सर्वस्व ज्ञानगुण ही है। जम दीपक के प्रकाश बाप-दाग ऊपर-नाच-आगे-पीछ उजाला करके घडा-कपडा इत्यादिदमने है परन्न दापक में उममें काई विकार उत्पन्न नहीं होता। भावार्थ जिम तरह, दीपक प्रकागरूप है और घटपटादि अनेक वस्तुओं का प्रकागिन करता है परन्न प्रकाशित करता हुआ जो अपना प्रकाश मात्र स्वरूप था वैसा ही है उसमें विकार ना काई देखा नहीं जाता उसी तरह जीव द्रव्य जान-म्बाप है, ममम्न शेय को जानता है। जानते हुए भी उसका जो अपना जानमात्र म्यरूप था, वह वंसा ही है। नंय को जानने में काई विकार नहीं होता एम वस्तु के स्वरूप को जो नहीं जानता वह मिध्यादष्टि है | बोहा-ज्यों दीपक रजनी ममें, बहंरिशि करे उरोन।
प्रगटे घट घट रूपमें, घट पट रूपन होत ॥ स्यों मुबान जाने मकल, जय बस्तुको मन । मंयाकृति परिणमें, तन मातम धर्म ॥
मामधर्म अविचल मदा, गहे विकार नकोय । राग विरोष बिमोहमय, कबाई मूलि महोय ।। ऐमो महिमा मानको, निश्चय है घटमाहि।
मूरख मिन्यादृष्टि मों, सहज बिलोके नाहि ॥ पर स्वभाव में मगन हं, ठाने राग बिरोष।। परे परिपह बारमा, करेनपातम शोष ॥२६॥