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ममयमार कलश टाका
म्थयमयम गधी तत्र सर्पत्यबोधो
भवन विदितमम्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥२७॥ जीवद्रव्य मगार अवस्था म गग-द्वंप-माह अशुद्ध चेतनरूप परिणमन करता है मा वग्न के ग्याप का विनार कर ना यह जीव का दाप है, पुद्गल दृश्य का बाट दाप नही है। कारण कि जीव द्रव्य अपने विभाव-मिथ्यात्व में परिणमन करना या अपन अजानवा गग-प-मोह कप अपने आप परि. नमन करे ना पदगल दृव्य की उम पर क्या मामथ्र्य है : अगद अवग्था म गगादिगद परिणति होती ना उन अगद परिणति के होन म अधिक तथा कम जितना भा जानवरणादि कम का उदय है अथवा गरीर मना-वचन है अथवा
मन्दिय भाग गामग्रा ल्यादि मामग्री है उनका किमी का ना कोई दाप नही है। वरना गमागे जाव अपने पाप मध्यान्वम्प परिणत कर गदम्बाप के अनभव में भ्रष्ट हान में. कम + उदय ग हा अगद्ध भाव का आना ग्वय का भाव मानना है ना उस पर अजान का अधिकार होकर गग-प-माहप अगद परिणनिहाता है।
'भावार्थ - जब जाच भान आप ही मिथ्यादाट होकर परद्रव्य को अपना मान र अनुभव कर नवगकी गग-द्वंप-मोहा अगर परिणनि हान म कोन गर सकता है । मम पदगन कम का क्या दाप है : रागादि अश्ट परिणनि पजाव परिणमन करना है. मां जीव का दोष है, पुद्गल दव्य का दोष नहीं है। माना जा माह-गग-द्वेष कप अशुद्ध परिणांत है उमका बिना हान पर में शनि , अविनम्बर. अनादिनिधन, अंगाह वंसा विधमानहा। भावार्थ जाव द्रव्य शुद्ध स्वरूप है उमम माह-गग5ष पजा अशुद्ध पारणात है उसका मिटान का यहा महज उपाय है कि जाव द्रव्य शुद्ध बाप म परिणमन करता अशष्ट परिणान मिट जाए। और कोई भी क्रिया या उगय नहीं है। उम अशुट परिणात के मिटते ही जाव वस्तु बसा है. वसा हा है उनम न कुछ घटता है न बढ़ना है ॥२७॥ दोहा--कोउ मूरख यों कह, राग देष परिणाम ।
पुरगल को जोरावरी, बरते मातमराम ॥
ज्यों ज्यों प्रगल बल करे, धरि परि कमज मेष ।
राग देष को परिणमन, त्यों त्यों होय विशेष ॥ हरिषि जो विपरोन पब, गहे पापहे कोय । मो नर गग विरोष सों. कई भिन्न न होय ॥२७॥