Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 223
________________ शुदाम-द्रव्य अधिकार १६३ उपजाति रागद्वेषोत्पारकं तत्वदृष्ट्या नान्यद्रव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि । सर्वद्रव्योत्पतिरन्तश्चकास्ति व्यक्ताऽत्यन्तं स्वस्वभावेन यम्मात् ॥२६॥ कोई मा माने कि जोव ना कभावना गग-द्वप पोरणमन का नहीं है परन्न । पर-द्रव्य ज्ञानाबरणादि कम नथा ममार भाग मामग्रा जाग में जीव का गग-दंग परिणमन करवाने, मा एम। नी । जीवको विभावरूप परिणमन करने का क्ति जाव माना मिथ्यान्य परिनि के कारण गग-दप " जाधवय परिणमन करता है, दूमो किमी द्रव्य को एग नगद काका गामथ्यं न । प्रार, नाम अथया नगर-मन-वचनम्प-नाकम अथाबासामाग गामना 7 iजन मा परदथ्य है, यदि दव्य का मच्ची दष्टि गदम ना. वा. मा भगद्ध बननाए गगदप परिणामा को उपजान म ममय नहीं दिखाद।।गा अर्थ का भार पुष्ट करने के हेतु कहते है गवरव्य जीव, पुदगल, धर्म, अधमं. कान और आकाश का अखण्ड धागा परिणाम अनि हा प्रगट प में अपन-अपने म्वरूप में है, यह ही अनुभव ग उभरता है और एम ही वस्नु ठहरती है। हममे अन्यथा विपरीत है. ॥२६॥ कोउ शिष्य को स्वामी गग-देव परिणाम, साको मून प्रेग्क कर तुम कौन है। पुगत काम जोग किषोंन के भोग, कोषों पन, कोषों परिजन, कोषो भोन है। गुरु को छहों व्य अपने अपने ब्प, मनि को महाप्रमहाई परिगोग है। कोजाग्य काहको न प्रेरक कहाचि नातं, गग-प-मो.-मृबा मदिरा प्रबोंन है ॥२६॥ परिह मति रागवडोषप्रसूतिः कतरपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278