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सूयात्म-द्रव्य अधिकार
शाईलविक्रीडित
रागद्वे विभावमुरूमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकम्मं विकला मिश्रान्तदास्वोदयात् । दूरारूचरित्रबंभवबलाच्च चचिरचिर्मयों विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ॥ ३० ॥
निरन्तर अपने शुद्धरूप का जो मम्यकदृष्टि जीव अनुभव करता है वह रागद्वेग में गहन, अपने आत्मीय रम में जगन का मानो मिलन करने वाली और मन ज्ञेय को जानने में गम चैतन्य हो जिसका सर्वस्व मी ज्ञान नेतना का स्वाद लेता है. उसकी प्राप्त करना है। ज्ञान चेतना का वह स्वरूप जीव की अपनी राग रूप अशद्ध परिणति से रहित अतिगाढ़ चारित्रगुण की सामध्ये अथवा प्रताप से प्रगट होता है। सम्यग्दृष्टि जीव का शुद्ध ज्ञान रागद्वेष इत्यादि जितना भी अशद्ध परिणतिरूप जीव के विकार भाव हैं उनमें हिन हुआ है तथा जितने भी अतोन काल अथवा आगामी कान में सबंधित नाना प्रकार के असम्यान लोक मात्र गगादिरूप अथवा सुखद व अशुद्ध चेतना के विकल्प है उनमें वह सर्वथा गहन है तथा वर्तमान काल में जो कर्मों के उदय से शरीर सुखरूप विषयभोग सामग्री इत्यादि उन्हें प्राप्त हुई है उनके प्रति ने परम उदासीन है ।
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भावार्थ- मम्यकदृष्टि जीव त्रिकाल सम्बन्धी कमों के उदय की सामग्री से विरक्त होता हुआ शुद्ध चेतना को पाना है, उसका आस्वादन करना है ||३०||
मया जहां शुद्ध ज्ञानकी कला उद्योन होने नहीं, शुद्धता प्रमाण शुद्ध चारित्र को अंश है। ता कारण ज्ञानी मब जाने शेव वस्तु मर्म, वेराग्य बिलाम धर्म बाको सरवंश है ॥
रागद्वेष मोहको दशामों मित्र रहे यातें, सर्वचा त्रिकाल कर्म जालकों विध्वंस है । निस्पाधि प्रातम ममाथि में विराजं तासं, कहिए प्रगट पूरण परम हंस है ||३०|l