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शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार
उपजाति
जन्मनि निमिततां परद्रव्यमेव कनयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनों शुद्धबोधविधुराम्यबुद्धयः ॥ २८ ॥
उपरोक्त अर्थ को और प्रगान करने
कहते है कि मकन उपाधि मे रोहन जीव वस्तु के प्रत्यक्ष अनुभवमे रहित होने के कारण मिध्यादृष्टि जोनराशि माह-राग-द्वेषवाला अगद्ध परिणति रूक्षत्र का सेना का नहीं मिटा सकती ।
प्रश्न- जिस जीव का सर्वस्व ज्ञान सम्यक्व से शुन्य है उसका अपराध क्या है ?
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उत्तर- अपराध है, वहीं कहते है। कोई मिध्यादृष्टि जांव राग-द्वयमोह रूप अशुद्ध परिणति में परिणमन कर रहा है उसके विषय में कोई ऐसी श्रद्धा करें कि आठ कर्म, शरीर आदि नाक तथा बाह्य सामग्री व्यादि पुद्गल द्रव्य का निमित पाकर वह जाय रागादिरूप परिणमन करना है, तो वह मिथ्यादृष्टि है, अनन्य सन्मारी है कि नियम अगर मगागं जीव की गगादि अशुद्ध परिणमन करने की शक्ति नहीं है और पुदगल कम उसकी बरजोरी में अशुद्ध परिणमन करवाना हैकमना सब कान में विद्यमान ही है फिरजीव का शद्ध परिणमन का अवसर हो कहा मिलगा अपितु कोई अवसर नही रहा ||२६||
दोहा-मुगुरु कहे जग में रहे, गुगल मंग मोब
सहज शुद्ध परिणाम को प्रोमर लहे न जीव ॥ ताते विभावन वियं समस्य चेतन गव । राग बिरोध मिध्यानमें, गम्यक में शिव भाव ||२६||
शार्दूलविक्रीडित
पूर्णकाच्युतशुद्ध बोधर्माहमा बोधा न बोध्यावयं यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दोपः प्रकाश्यादिव । तद्वस्तुस्थितिबोध बन्ध्यधवरणा एते किमज्ञानिनो रागद्वेषमयोभवन्ति सहजा मुञ्चन्त्युदासीनताम् ॥ २६ ॥
कोई मिध्यादृष्टि जीव ऐसी आशंका करना है कि जब जीव द्रव्य शायक है और समस्त ज्ञेय को जानना है तो परद्रव्य को जानने हुए उसमें