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समयसार कलश टीका पाही दुरक्षिसों विकल भयो गलत है, ममुझे न धरम यों भलं माहि वयो है ॥१६॥
रयोद्धता वस्तु चंकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरो परस्य कः किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि ॥२०॥
दमी अर्थ को ओर बन देकर ममझान है.... जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य अपनी-अपनी मनाप जमे है. वंग ही है। अन्य किसी द्रव्य में मवंथा नहीं मिलने - म दृश्यों के स्वभाव को मर्यादा है। हम कारण, निश्चय में, द्रव्य वस्तु अपने म्वरूप में जैसा है, वैमी ही है एमा ही परमेश्वर ने कहा है और अनुभव में भी यही आता है। जाव द्रव्य जय वस्तु को यपि जानता है. नथापि उसमे सम्बन्धरूप (एकरूप) नहीं हो सकता ।
भावार्थ ... वम्त स्वरूप की मी मर्यादा है कि कोई द्रव्य किमी द्रव्य में एक नहीं होता है । इसके उपगन भी जीव का स्वभाव जय वस्तु की जाना का हो तो हो. उसमें भी धोखा नो कोई नहीं है । जीव द्रव्य शय वस्तु को जानता हआ अपन म्वरूप म है ॥२०॥ चौपाई-सकल वस्तु जगमें प्रमहोई । वस्तु बस्नुमों मिले न कोई ॥
जोब बस्तु जाने जग जेती। सोऊ भिन्न रहे सब सेतो ॥२०॥
रथोद्धता पतु वस्त कुरुतेऽन्यवस्तु नः किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम् । व्यावहारिकदृशंव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ॥२१॥
कोई आशका उठाए कि जैन सिद्धान्त में भी गमा कहा है कि जीव जानावरणादि पुद्गल कम को करता है. भोगता है। तो उसका यह समाधान है कि मूठे व्यवहार में कहने भर को ऐसा है। द्रव्य के स्वरूप का विचार करें तो परद्रव्य का कर्ता जीव नहीं है। ऐसी भी एक कहावत है कि कोई चेतना लक्षणयुक्त जीव द्रव्य अपने परिणामों की शक्ति से मानावर. णादि रूप परिणमन करता है और ऐसे किसी पुद्गल द्रव्य का कता हैऐसा अभिप्राय मूठी व्यवहार दृष्टि से है। वस्तु के स्वरूप के विचार से ऐसा अभिप्राय नहीं है।