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शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार
१८७ से व्याप्य-व्यापक रूप है अतः उसी का कर्म है-विचार करने पर ऐसा ही घटता है व अनुभव में आता है। अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य कर्ता है अथवा अन्य द्रव्य का परिणाम अन्य द्रव्य का कर्म है ऐसा तो अनुभव में घटता नही क्योकि दो द्रव्यों में परस्पर व्याप्य-व्यापकपना नही है ॥१८॥ वोहा-प्रब्यकर्म कर्ता प्रलल, यह व्यवहार कहाव । निजोजसो परब, तसो ताको भाव ॥१॥
पृथ्वी बहिल्ठति यद्यपि स्फुटबनन्तशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्वन्तरं । स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्स्विष्यते स्तमावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ॥१६॥
जीव का स्वभाव है कि वह सकल जय को जानता है, एसा जान कर कोई मिथ्यादृष्टि जीव अपने अज्ञानपने के कारण जीव को समस्त शंय बग्नु को जानने के कारण अशुद्ध मान कर उसे शुद्ध स्वरूप में स्खलित (रहित) जान कर क्यों मंद मिन्न होता है। परन्तु यह नियम में अविनश्वर शक्तियुक्त चंतनाक्ति का अपना स्वभाव ही है कि अन्य जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य उसके अनुभवगोचर हो यद्यपि प्रत्यक्षरूप में ऐमा है कि जीव द्रव्य समम्न जय को जानकर जयाकार रूप परिणमन करता है, तो भी कोई एक जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्य में प्रवेश नहीं करता है एमा वस्तु का स्वभाव है।
भावार्थ-जीव द्रव्य समम्न शंय वस्तु को जानता है ऐमा नो स्वभाव है परन्तु मान जयरूप नहीं होता है और जय भी मानरूप परिणमन नहीं करता, ऐसी वस्तु की मर्यादा है ॥१९॥ सबया -मानको सहज याकार रूप परिणाम,
यपि तवापिसान जानरूप कहो है। मेय यरूपसों अनादि हो की मरयाय, काहू वस्तु काहको स्वभाव नहिं गयो है ॥
एते परि कोड मिण्यामति कहे याकार, प्रतिभासनिसों मान अशुरुहं रहो है।