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शुदात्म-द्रव्य अधिकार
१८१ भावार्थ-ऐसी कोई बात मत्य नहीं है, मूल मे मठ है. ऐसा सिद्धान्त मिट हुआ ॥२१॥ दोहा-कर्म करे फल भोगवे, जीव प्रशानी कोय । यह कपनी व्यवहार की, वस्तुस्वरूप न होय ॥२१॥
___ शार्दूलविक्रीडित शुखद्रव्यनिरूपणापितमतेस्तत्वं समुत्पश्यतो नंकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जाचित् । शानं शेयमवंति यत्तु तवयं शुबस्वभावोदयः कि द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्वाच्यवन्ते जनाः ॥२२॥
ममम्त मंमारी जीव राशि का टम अनुभव में भ्रष्ट होने का कोई कारण नहीं है कि जीव वस्तु मर्वकाल गदम्बका है व ममम्त शंय पदार्थों को जानती है।
भावार्थ-वस्तु का स्वरूप नो प्रगट है इसमें भ्रम में क्यों पटा जाय ? ऐसी बद्धि करना कि समस्त ज्ञेय वस्तु को जानता है. इसलिए जब अगुड हो गया है और शेयवस्तु का जानपना छट कर ही वह गद होगा श्रम है । ज्ञान अंय वस्तु को जानता है यह तो ठाक ही है यह गद जीव वस्तु का म्वरूप है । भावार्थ-जमे अग्नि का दाहक स्वभाव है और वह समस्त दाय वस्तु को जलाती है परन्तु जलाने हा भी अग्नि अपने गुद्ध ग्वरूप में स्थित है-अग्नि का ऐमा ही स्वभाव है । उसी तरह जीव ज्ञान स्वरूप है और वह ममस्त जय को जानता है परन्तु जानते हुए भी अपने स्वरूप है ऐमा वस्तु का स्वभाव है। जो शंय को जानने में जीव को अशुद्ध मानते हैं मो ऐसा नहीं है, जीव शुद्ध है। कोई भी जयरूप पुद्गल द्रव्य अथवा धर्म-अधर्मअकाश-काल द्रव्य शुद्ध जीव वस्तु मे मिलकर एक द्रव्यमा परिणमन करेऐसा नहीं शोभता है। भावार्थ ---जीव समस्त जेय को जानता है फिर भी मान ज्ञानरूप है और जंय वस्तु जेय रूप है। कोई द्रव्य अपना द्रव्यत्व छोड़ कर अन्य द्रव्यरूप तो नहीं हुआ, ऐसा अनुभव उस जीव को होता है जो ममस्त विकल्पों से रहित शुद्ध चेतना मात्र जीद वस्तु के प्रत्यक्ष अनुभव में अपनी बुद्धि के सर्वस्व को लगाता है तथा मत्तामात्र शुद्ध जीव वस्तु का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन करता है। भावार्थ-जीव समस्त जेय मे भिन्न है। ऐसा वस्तु का स्वभाव सम्यग्दृष्टि जीव जानता है ॥२२॥