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समयसार कलशटीका दम्य अशुद्ध है, शुद्ध है ही नहीं-- एमा मानने वाले जीवों को भी वस्तु को प्राप्ति नहीं है और मनातर कहते हैं। कोई अन्य एकांतवादी मिप्यादष्टि जीव पग है, जो कर्म की उपाधि को नहीं मानते है और जीव को सवं काल मवंथा गढ़ मानते है, उनको भी वस्तु की प्राप्ति नहीं है। म्यावाद मूत्र के बिना उम माक्ष का यदि चाहा जाए जिसका सकल कर्म का अय ही लक्षण है, ना वह वैसे ही नहीं मिल सकता जैसे बिना मूत्र के हार नही बनता।
भावार्थ-- जैम मून बिना मानी नहीं मध सकतं उसी प्रकार स्याद्वाद मूत्र का ज्ञान पाये बिना एकान्नवादिया को आत्मा का स्वरूप नही सधता अर्थात आत्मस्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए जो जीव सुख चाहं वह जैम स्याहाद मूत्र में आत्मा का स्वरूप मधता है वैसा ही मान ॥१६।। कवित्त-केई कहे जीव भरणभंगुर, केई कहे करम करतार ।
केई कम रहित नित पहि, नय अनन्त नाना परकार ॥ जे एकान्त गहे ते मूरख, पंडित अनेकान्त पखधार ।
जसे भिन्न भिन्न मुक्ताहल, गुणसों गहत कहावे हार ॥ दोहा-यथा सूत संग्रह बिना, मुक्त माल नहि होय ।
तथा स्याद्वादी बिना, मोक्ष न साधे कोय ॥१६॥
शार्दूलविक्रीडित कर्तुर्वयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वमेवोऽपि वा कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सचिस्यता । प्रोता सूत्र इवात्मनोह निपुरगत न शक्या कधिचिचिन्तामणिमालिकेयभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः ॥१७॥
जो सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभव में प्रवीण है उसको समस्त विकल्पों से रहित निर्विकल्प मत्ता मात्र चैतन्य स्वरूप का स्वसंवेदन के द्वारा प्रत्यक्षरूप से अनुभव करना योग्य है । द्रव्याथिक नय और पर्यायापिक नय कर्ता का और भोक्ता का भेद दिखाते हैं । अन्य पर्याय करती है और अन्य पर्याय भोगती है, ऐसा पर्यायाथिक नय से भेद हो तो हो-ऐसा साधने से साम्य की सिदि तो कोई नहीं है। अथवा द्रव्याथिक नय से जो द्रव्य भाना. परणादि कमों को करता है, वही भोक्ता है-ऐसा भी है तो ऐसा ही हो