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बंध -अधिकार
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द्रव्य के स्वरूप हैं और इसीलिए रागादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता नहीं होता । भावार्थ -- सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि अशुद्ध परिणामों का स्वामित्वपना नहीं है इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव कर्त्ता नहीं है ।। १४ ।।
चौपाई - इह विधि वस्तु व्यवस्था आने । रागादिक निज रूप माने ।। ताते ज्ञानवंत जग मांही। करमबंध को करता नांही ॥१४॥
शार्दूलविक्रीडित
इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात् तन्मूलां बहुभावसन्तरि मिमामुद्धर्तकामः समम् । श्रात्मानं समुपैति निर्भर वहत्पूर्णकसं विद्युतम् येनोन्मूलितलन्ध एष भगवानात्माऽऽत्मनि स्फुर्जति ।। १५ ।।
प्रत्यक्ष है कि जो जीव द्रव्य अनादिकाल से निज स्वरूप से भ्रष्ट हो रहा था उसने उपरोक्त अनुक्रम मे अपने स्वरूप को प्राप्त किया। स्वरूप की प्राप्ति होने पर उसका पर द्रव्य से सम्बन्ध छटा मात्र अपने आपसे सम्बन्ध रहा। उसने ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गलद्रव्य के पिंड को मूल मत्ता में दूर कर दिया। वह ज्ञान स्वरूप है, अनंत शक्ति का पुज है और उसी रूप निरंतर परिणमन करता है और विशुद्ध ज्ञान से युक्त शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। ऐसा जिस आत्मा का स्वरूप कहा है उसका अभिप्राय राग-द्वेष-मोह आदि अनेक प्रकार के अशुद्ध परिणामों तथा उनके बहुविधि भावों की उस परम्परा को जिसका मूल कारण पर द्रव्य में स्वामित्वपना है; एक ही समय में उखाड़ कर दूर करना है। निश्चय ही उसने ज्ञान के बन्न मे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नाकर्मरूप जितना भी पुद्गल द्रव्य की विचित्र परिणतियां हैं उन सबको प्रर्वाचित प्रकार से विचार करके ज्ञान स्वरूप में भिन्न किया है।
भावार्थ- शुद्ध स्वरूप उपादेय है, अन्य समस्त पर द्रव्य हैय है ।। १५ ।।
सर्वथा - ज्ञानी भेदज्ञानसों विलेखि पुद्गल कर्म,
ग्रात्मीक धर्मसों निरालो करि मानतो । ताको मूल कारण प्रशुद्ध-राग-भाव नाके, नासिबेकों शुद्ध अनुभौ प्रभ्यास ठानतो ॥।