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शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार तेवामुखतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुखये स्याद्वादप्रतिबन्धलग्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ॥१२॥
अब जीव द्रव्य के स्वभाव की उम मर्यादा का वर्णन करते हैं-जिसने 'जीव कर्ता हैं और अकर्ता भी हैं.'. ऐगे अनेकान्त को सावधानी से स्थापित कर विजय पाई है। मे मिथ्यादष्टि जोव जिनको शद-वरूप का अनुभव करने की मम्यशक्ति तीवकर्म के उदय में उपजे मिथ्यात्वभाव से अच्छादित है और जो जीव को मर्वथा अवतां कहते हैं उनको इस विपरीत बदि को छड़ाने के लिए जीव के स्वरूप का माधना है । चेतना स्वरूप मात्र जो जीवद्रव्य है वह किमो यक्ति में अगद्ध भाव का कर्ता भी है ऐसा सुनने मात्र में किमो-किमी मिथ्यादष्टि जीव को अत्यन्त क्रोध उपजता है जो गाड़ा और अमिट है। वह जीव के अपने गगादि अगद्ध भावों के कर्मापने को मर्वथा मेट कर क्रोध करता है और यह मानता है कि अकेला जानावरणादि. कर्म पिड गगादि अशद्ध परिणामों का अपने आप ही व्याप्य-व्यापकरूप से कर्ना है. ऐमा भाव गट लेता है और मी ही प्रतीति करता है। इस प्रकार वह स्वयं अपना घातक है और मिथ्यादप्टि है ॥१२॥ मबंया-कोह मूढ़ विकल एकल पक्ष गहे कहे,
प्रातमा प्रकरतार पूरग्ग परम है। तिनमो जो कोउ कहे जीव करता है तासों, फेरि कहे करमको करता करम है।
ऐसे मिथ्या मगन मिण्याती ब्रह्मघाती जीव, जिन्हें के लिए प्रनादि मोहको भरम है। तिनको मिथ्यात्व दूर करिवेको कहें गुरु,
स्यावाद परमान प्रातम परम है ॥ दोहा-चेतन करता भोगता, मिथ्या मगन अजान । नहिं करता नहिं भोगता, निश्चं सम्यकवान ॥१२॥
शार्दूलविक्रीड़ित मा करिममो स्पृशन्तु पुरुषं साल्या इवाप्याहताः कर्तारं कलयन्तु तं किल सवा मेदावबोधावयः । ऊ तबतबोधधाम नियतं प्रयक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु व्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ॥१३॥