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बंध-अधिकार तेई जीव परम दशा में पिर रूप हूके, परममें दुके न करमसों रुकत हैं ॥११॥
उपजाति रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुचिमात्रमहोऽतिरिक्ताः । मात्मा परो वा किमु तनिमित्त-मिति प्रगुन्न : पुनरेवमाहुः ॥१२॥
किसी ने विनम्र होकर यह प्रश्न पूछा है कि हे स्वामिन् ! रागतुष-मोह इत्यादि असंख्यात लोक मात्र विभाव परिणाम अशुद्ध चेतनारूप है और ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध के कारण है. ऐसा कहा. सुना, जाना और माना। शट ज्ञान तो चेतनामात्र है। ज्योतिस्वरूप जीव वस्तु उन विभाव परिणामों में अतिरिक्त है, अलग है। तो मैं पूछना चाहता ह कि उन रागटेप-मोहम्प अगद परिणामां का करने वाला कोन है --जीव द्रव्य करने वाला है या मोहरूपकम ने परिणमन किया है : अथवा पुदगल द्रव्य का पिट उनका करने वाला है ? इस प्रश्न का पथ के कनां श्री कुन्दकुन्दाचार्य उत्तर देते हैं ॥१२॥ कवित-जे जे मोह कर्म की परिणति, बंध निदान कहो तुम सम्ब।
संतन भिन्न शुद्ध चेतनमों, तिन्हको मूल हेतु कहु प्रम्य ॥ के यह महज जीव को कौतुक, के निमित्त है पुगत बन्न । सोस नवाइ शिष्य इम पूछत, कहें सुगुरु उत्तर सुन भम्य ॥१२॥
उपजाति न जातुरागादिनिमित्तमाव-मा:माऽऽत्मनो याति यथार्थकान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥१३॥
पीछे जो प्रश्न किया था उसका उत्तर इस प्रकार है.. आत्मा किसी भी काल में अपने आप में राग-द्वेष-मोह आदि अशुद्ध परिणामों का कारणरूप परिणमन नहीं करता-सा वस्तु का स्वभाव मवं काल प्रगट है।
भावार्ष-द्रव्य के परिणामों का कारण दो प्रकार है : एक उपादान कारण है और एक निमित्त कारण है । उपादान कारण अर्थात् द्रव्य में अन्तगभित जो अपने परिणाम मे पर्यायरूप परिणमन की शक्ति है वह तो उस द्रव्य की उसी द्रव्य में होती है। यह निश्चय है। अन्य द्रव्य का मंयोग पाकर अथवा उसके निमित्त कारण से जो द्रव्य अपने पर्यायल्प परिणमन करता है