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समयसार कलश टीका मईया .. जीव अरु पुदगल करम रहे एक खेत,
यपि, तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है। लक्षरण स्वरूप गुग्ण पर प्रकृति भेद, दह में प्रनादि हो की विधा ह रही है।
एते पर भिन्नता न भासे जीव करमकी, जोलों मिथ्याभाउ तोलों मोंधी वायु बही है। जानके उद्योत होत ऐसी सूधी दृष्टि भई,
जोव कर्म पिण्डको प्रकरतार सही है। दोहा-एक वस्तु जैसी जुहै, लासों मिले न मान । जीव प्रकर्ता कमको, यह अनुभौ परमान ॥६॥
वसंततिलका ये तु स्वभावनियम कलयंति नेममज्ञानमग्नमहसो वत ते वरापाः । कुर्वन्ति कर्म ता एव हि भावकर्म
कर्ता स्वयं भवति चेतन एक नान्यः ॥१०॥ दुःख के साथ कहते है कि मिथ्यादष्टि जीव-राशि के गुद्ध चैतन्यरूप प्रकाश को मिथ्यात्वरूप भावों ने ऐसा आच्छादित कर लिया है कि वह मोह-गग-द्वेष रूप अशद्ध परिणमन कर रही है और जीवद्रव्य ज्ञानावरणादि पुद्गल पिड का कर्ता नहीं है। ऐसा जो वस्तु का स्वभाव है उसका उमे प्रत्यक्षरूप से अनुभव नहीं होता।
भावार्थ-मिथ्यादष्टि जीव राशि शुद्ध स्वरूप के अनुभव मे भ्रष्ट है इमोलिए पर्याय में मग्न है और मिथ्यात्व-राग-द्वेष के अशुद्ध परिणाम में उसका परिणमन हो रहा है । क्योंकि मिथ्यात्व-राग-द्वेष अशुद्ध चनना रूप परिणामों में जीव द्रव्य का ही व्याप्य-व्याक रूप मे परिणमन है अतः वह अपने आप ही उनका कर्ता है, पदगल कम अशुद्ध चेतना रूप परिणामों का कर्ता नहीं है। भावार्थ-जो जीव मिथ्यादृष्टि हुआ जैसे अशुद्ध भावरूप परिणमता है, वैसे हो भावों का कर्ता होता है, ऐसा सिद्धांत है ॥१०॥ चौपाई-जो दुरमति पिकल प्रमानी। जिन्ह स्वरीत पररोत न जानो।
माया मगन भरमके भरता। ते जिय भाव करम के करता। पोहा- मियामति तिमिरसों, लसेन जीव प्रजीव ।
तेई भाषित कर्मके, कर्ता होय सदोष ।।