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समयसार कलश टीका प्यारो रितनको हस्यारो मोल मारग में, न्यारो पुदगल सों उजारो उपयोग को॥
जाने निज पर तस रहे जग में निरत्त. गहे न ममत्त मन वच काय जोगको। ता कारण ज्ञानीज्ञानावरणादि कर.को,
करता न होइ भोगना न होइ भोगको। दोहा--निभिलाख करणी करे, भोग प्ररुचि घट माहि । तास साधक सिद्धसम, कर्ता भोक्ता नाहि ॥६॥
श्लोक ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः । मामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ॥७॥
मिथ्यादष्टि जीव के कर्म का विनाश अथवा शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति नही है। यद्यपि वह जैन मत के आधित है, बहन ही पढ़ा-लिखा है, द्रव्य त्रिया प चारित्र पालता है, मोक्ष का अभिलापी है तो भी जैसे तापस अथवा योगी भरड़ा इत्यादि जीवों को मोक्ष नहीं है वैसे ही मिथ्यादष्टि जीव को भी मोक्ष नहीं है।
भावार्थयह जीव जैन मत का आश्रित है इसमें कुछ विशेषता होगी? इससे कुछ विशेषता नही है। ये मिथ्यादष्टि जीवोमा मानते हैं कि जीव द्रव्य का यह स्वभाव है कि वह ज्ञानावरणादि कर्मों को तथा रागादि अशट परिणामों को करता है। सी ही वे प्रतीति करते हैं और ऐसा ही आस्वाद लेते हैं। मिथ्यात्व भाव ऐसा अन्धकारमय होकर व्याप्त है कि उसमें मिध्यादष्टि जीव अन्धा हो रहा है। भावार्थ-जो जीव का वभाव कारूप मानते हैं वे महामिथ्यादष्टि है क्योंकि कपिना जीव का स्वभाव नहीं है, विभावरूप अशुद्ध परिणति है, पराये संयोग से है और विनाशोक है ॥७॥ कवित-जो हिय ग्रंप विकल मिष्यात घर, मृवा सकल विकलप उपनावत।
गहि एकंत पक्ष प्रातमको, करता मानि प्रधोमुल पावत ॥ स्यों जिनमती द्रव्य-बारित कर, करनी करि करतार कहावत । बोषित मुक्ति तथापि मूहमति, बिन समकित भव पार न पावत ॥