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शुदात्म-द्रव्य अधिकार भावकर्म का भोक्ता नहीं है- ऐसा वस्तु का स्वरूप है।
भावार्थ-जीव के सम्यक्त्व होने पर अशुद्धपना मिटता है इसलिए भोक्ता नहीं है ॥५॥ सर्वया- जगवासी प्रज्ञानी त्रिकाल परजाय बद्धि,
सो तो विष भोगनिसों भोगता कहायो है। समकिती जीव जोग भोगसों उदासी ताते, सहज प्रभोगता जु ग्रंथनिमें गायो है।
याहि भांति वस्तुको व्यवस्था प्रवधारे दुष, परभाव त्यागि प्रपनो स्वभाव प्रायो है। निरविकलप निरुपाधि प्रातम प्राराधि, साधि जोग जुगति ममाधि में समायो है ॥५॥
वसंततिलका ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावं । जानन्परं करणवेदनयोरभावा
न्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥६॥ सम्यग्दृष्टि जीव गगादि अशद्ध परिणामों का कर्ता नहीं है और मुख-दुम्ब आदि अशुद्ध परिणामों का भोक्ता नहीं है। मम्यग्दृष्टि जीव निश्चय मे यह जानता तो है कि जितने भी गर्गर भोग, गगादि, मुख-दुख इत्यादि है वे सब कम के उदय मे होते हैं, वे जीव का स्वरूप नहीं है परन्तु वह उनमें स्वामित्वरूप में परिणमन नही करना । सम्यग्दृष्टि जीव तो जैमा निर्विकार सिद्ध है, वैसा ही है। ममस्त पगद्रव्य की मामग्री का शायक मात्र है। मिथ्यादष्टि की तरह उस सामग्री का म्वामीपना नहीं है। सम्यग्दृष्टि जाव में कर्म के करने अथवा कर्म के भोगने का भाव मिट गया है इलिए वह शद चैतन्य वस्तु के आस्वाद में मग्न है।
भावार्थ-मिथ्यात्व मंसार है। मिथ्यात्व के मिटने पर जीव सिद्ध सदृश है ॥६॥ संबंया-चिनमुद्रा पारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुरण,
रतन भंडारो पाप हारी कर्म रोग को।